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सेवा-परोपकार
सेवा-परोपकार
सबसे पहला लक्षण। उसमें सभी चीजें आ जाती हैं। उसमें वह अब्रह्मचर्य का भी सेवन नहीं करता। अब्रह्मचर्य का सेवन करना मतलब किसी को दुःख देने के समान है। अगर ऐसा मानो कि राजी-खुशी से अब्रह्मचर्य हुआ हो, तब भी उसमें कितने जीव मर जाते हैं ! इसलिए वह दुःख देने के समान है। इसलिए उससे सेवा ही बंद हो जाती है। फिर झूठ नहीं बोलते, चोरी नहीं करते, हिंसा नहीं करते, धन जमा नहीं करते। परिग्रह करना, पैसे इकट्ठे करना वह हिंसा ही है। इसलिए दूसरों को दु:ख देता है, इसमें सब आ जाता है।
प्रश्नकर्ता : खुद की सेवा के दूसरे लक्षण कौन-कौन से हैं? खुद की सेवा कर रहा है, ऐसा कब कहलाता है?
दादाश्री : 'खुद की सेवा' करनेवाले को भले ही इस संसार के सारे लोग दुःख दें, पर वह किसी को भी दु:ख नहीं देता। दुःख तो देता ही नहीं, पर बुरे भाव भी नहीं करता कि तेरा बुरा हो! 'तेरा भला हो' ऐसे कहता है।
हाँ, फिर भी सामनेवाला बोले तो हर्ज नहीं है। सामनेवाला बोले कि आप नालायक हो, बदमाश हो, आप दुःख देते हो, उसका हमें हर्ज नहीं। हम क्या करते हैं, यही देखना है। सामनेवाला तो रेडियो की तरह बोलता ही रहेगा, जैसे रेडियो बज रहा हो वैसा!
प्रश्नकर्ता : जीवन में सभी लोग हमें दुःख दें, फिर भी हम सहन करें, ऐसा तो हो नहीं सकता। घर के लोग ज़रा सा अपमानजनक वर्तन करें, वह भी सहन नहीं होता तो?
दादाश्री : तब क्या करना? इसमें न रहें तो किस में रहें? यह कहो मुझे। यह मैं कहता हूँ, वह लाइन पसंद नहीं आए तो उस व्यक्ति को किस में रहना? सेफसाइडवाली है कोई जगह? कोई हो तो मुझे दिखाओ।
प्रश्नकर्ता : नहीं, ऐसा नहीं। पर हमारा 'इगो' तो है ही न?
दादाश्री : जन्म से ही सभी में 'इगो' ही रोकता है, पर हमें अटकना नहीं है। 'इगो' है, वह चाहे जैसे नाचे। 'हमें' नाचने की ज़रूरत नहीं है। हम उससे अलग हैं।
उसके सिवाय दूसरे, सारे धार्मिक मनोरंजन
अर्थात् दो ही धर्म हैं, तीसरा धर्म नहीं। दूसरे तो ओर्नामेन्ट हैं! ओर्नामेन्ट पोर्शन और लोग 'वाह-वाह' करते हैं!
जहाँ सेवा नहीं है, किसी भी प्रकार की सेवा नहीं है, जगत् सेवा नहीं है, वे सब धार्मिक मनोरंजन हैं और ओर्नामेन्टल पोर्शन है सभी।
बुद्धि का धर्म तब तक स्वीकारा जाता है, जब तक बुद्धि सेवाभावी हो, जीवों को सुख पहुँचानेवाली हो, ऐसी बुद्धि हो वह अच्छी। बाकी दूसरी बुद्धि बेकार है। दूसरी सब बुद्धि बाँधती है उलटा। बाँधकर मार खिलाती रहती है और जहाँ देखो, वहाँ फायदा-नुकसान देखती है। बस में घुसते ही पहले देख ले कि जगह कहाँ है? इस तरह बुद्धि यहाँ-वहाँ भटकाती रहती है। दूसरों की सेवा करे, वह बुद्धि अच्छी। नहीं तो खुद की सेवा जैसी बुद्धि और कोई नहीं। जो खद की सेवा करता है, वह सारे संसार की सेवा कर रहा है।
जगत् में किसी को दुःख नहीं हो इसलिए हम सभी से कहते हैं कि भई! सुबह पहले बाहर निकलते समय और कुछ नहीं आता हो तो इतना बोलना 'मन-वचनकाया से इस जगत् में किसी भी जीव को किंचित् मात्र दुःख न हो।' ऐसे पाँच बार बोलकर निकलना। बाकी जिम्मेदारी मेरी ! जा, दूसरा कुछ नहीं आएगा तो मैं देख लूँगा! इतना बोलना न ! फिर किसी को दुःख हो गया, वह मैं देख लूँगा। पर इतना त बोलना। इसमें हर्ज हैं?