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सत्य-असत्य के रहस्य
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से दुःख नहीं हो और मन से उसके लिए खराब विचार नहीं किए जाएँ, वह सबसे बड़ा सत्य है, व्यवहार सत्य है, वह भी फिर वास्तव में रियल सत्य नहीं है। यह चरम व्यवहार सत्य है !
प्रश्नकर्ता: तो फिर सत्य को परमेश्वर कहते हैं, वह क्या है? दादाश्री : इस जगत् में व्यवहार सत्य का परमेश्वर कौन? तब कहें, जो मन-वचन-काया से किसीको दुःख नहीं देता, किसीको त्रास नहीं देता, वे व्यवहार सत्य के भगवान, और कॉमन सत्य को कानून के रूप में ले गए। बाक़ी वह भी सत्य नहीं है। यह सारा व्यवहार सत्य है।
सामनेवाले को समझ में नहीं आए तब ....
प्रश्नकर्ता: मैं सच बात करता हूँ तब घर में मुझे कोई समझ नहीं सकता है। और कोई नहीं समझ सकता, इसलिए फिर वे लोग उल्टी तरह से समझते हैं फिर ।
दादाश्री : उस समय हमें बात से दूर रहना चाहिए और मौन रखना चाहिए। उसमें भी फिर दोष तो किसीका होता ही नहीं है। दोष तो अपना ही होता है। ऐसे-ऐसे भी लोग हैं कि जो पड़ोस में अपने साथ परिवार के रूप में होते हैं और वे अपने बोलने से पहले ही अपनी बात सारी समझ जाते हैं। अब वैसे भी लोग होते हैं, पर वे हमें क्यों नहीं मिले और ये लोग ही क्यों मिले?! इसमें सेलेक्शन किसका है? इसलिए सारी ही चीजें है इस दुनिया में। पर हमें नहीं मिलतीं, उसमें भूल किसकी ? इसलिए वे नहीं समझें तो हमें वहाँ मौन रहना चाहिए, दूसरा उपाय नहीं है।
उल्टे के सामने एडजस्टमेन्ट
प्रश्नकर्ता: दूसरे की समझ के अनुसार गलत लगता हो तो क्या करना चाहिए?
दादाश्री : ये सभी सत्य हैं, वे व्यवहार के लिए पर्याप्त सत्य हैं। मोक्ष में जाना हो तो सभी झूठे हैं। सभी का प्रतिक्रमण तो करना ही पड़ेगा।
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सत्य-असत्य के रहस्य
मैं आचार्य हूँ, उसका भी प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। मैंने खुद को आचार्य माना उसका भी प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। अरे, क्योंकि मैं शुद्धात्मा हूँ ।
इसलिए यह सब झूठा है, सब झूठा, आपको ऐसा समझ में आता है या नहीं आता? यह नहीं समझने के कारण ऐसा कहते हैं कि 'मैं सत्य कह रहा हूँ।' अरे, सत्य कहे तो कोई सामनेवाला आवाज़ नहीं करे। यह मैं यहाँ पर बोलता हूँ, तो सामने आवाज़ उठाने के लिए कोई तैयार होता है ? विवाद होते हैं? मैं जो बोलता रहता हूँ, वह सब सुनते ही रहते हैं न ?
प्रश्नकर्ता : हाँ। सुनते ही रहते हैं।
दादाश्री : विवाद नहीं करते न? वह सत्य है । वह वाणी सत्य है और सरस्वती है। और जिसके सामने टकराव होता है वह वाणी झूठी, संपूर्ण झूठी । वह सामनेवाला कहे, 'बेअक्कल आप बोलते मत रहो।' इसलिए वह भी झूठा और यह भी झूठा और सुननेवाले भी झूठे वापिस ! सुननेवाले कुछ नहीं बोले हों, वे सारे ही, पूरी टोली झूठी।
प्रश्नकर्ता: अपने कर्म के उदय ऐसे हों तो सामनेवाले को अपना सच हो तो भी झूठ ही लगता हो तो?
दादाश्री : सच होता ही नहीं है। कोई व्यक्ति सच बोल ही नहीं सकता। झूठ ही बोलता है। सच तो सामनेवाला कबूल करे ही, वह सच है, नहीं तो खुद की समझ से सत्य माना हुआ है। खुद के माने हुए सत्य को कहीं लोग स्वीकार नहीं करेंगे।
इसलिए भगवान ने सत्य किसका कहा है? तब कहे, वीतराग वाणी, वह सत्य है। वीतराग वाणी मतलब क्या? वादी कबूल करे और प्रतिवादी भी कबूल करे। उसे प्रमाण माना गया है। यह तो सारी रागी-द्वेषी वाणी, झूठी -लबाड़ी। जेल में डाल देने जैसी। इसमें सत्य होता होगा? रागी वाणी में भी सत्य नहीं होता और द्वेषी वाणी में भी सत्य नहीं होता। वह लगता है आपको कि इसमें सत्य होगा? यह हम यहाँ पर बोल रहे हैं, वह आपका