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________________ सर्व दुःखों से मुक्ति सर्व दु:खों से मुक्ति खिलायेंगे तो उसको अशाता होती है। वो अशाता वेदनीय है। ये वेदनीय वो सच्चा सुख नहीं है। सच्चा सुख तो सनातन सुख है। सारा दिन मछली तड़पती है, ऐसे पूरी दुनिया तड़प रही है। चिंता-worries हो गयी तो फिर वो relative adjustment करता है। नहीं तो दूसरी क्या medicine लगाये? सिनेमा में चलो, लेकिन इसको मालूम नहीं है कि ये दवा में क्या फायदा है? उससे तो वो अधोगति में जायेगा। अंदर खराबी हो गई, चिंता हो गई, उस समय कुछ योग में बैठ गया, भजन में बैठ गया और नहीं पसंद आये तो भी strong रहा तो वो उपर चढ़ता है। जो पसंद है, वहाँ मर्छित होता है और वो नीचे चले जाता है। ऐसा सिनेमा में जाने से नीचे ही चले जायेगा। 'नहीं पसंद आता' वो सब आत्मा का विटामीन है। मगर उसका खयाल नहीं है। एक सेकन्ड भी क्लेश करने के लिए ये world नहीं है। जो हो रहा है वो न्याय ही हो रहा है। कोर्ट का न्याय तो पक्षपाती होता है, गलत भी होता है। मगर कुदरत का न्याय तो दरअसल न्याय ही होता है। जो दिव्यचक्षु से देख रहे है, उसको बिलकुल correct दिखता है। मगर जिसको वो द्रष्टि नहीं, उसको समझ में नहीं आयेगा, वहाँ तक वो दु:खी ही रहेगा। अकेला real view point नहीं चलेगा, relative view point पहले चाहिये। दुःख relative में है और सारी दुनिया ही दुःखी है। real में दुःख नहीं है। real में द्रष्टि मिल गई, फिर कोई दु:ख नहीं है। मगर अभी तक द्रष्टि वो relative में ही है। हम आपकी relative द्रष्टि real कर देंगे, तो फिर आपको आनंद ही रहेगा। मात्र द्रष्टि का फर्क है। हम ये side देखते है, आप वो side देखते है। सच्चिदानंद है वहाँ दुःख नहीं है कुछ और दुःख है वहाँ सच्चिदानंद नहीं है। प्रश्नकर्ता : अब मैं मानता हूँ कि दुःख है ही नहीं। दादाश्री : हाँ, दुःख तो है नहीं। दुःख तो सिर्फ wrong belief ही है। जिसको wrong belief है, वहाँ दुःख है। जिसको wrong belief नहीं, वहाँ दुःख ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : आध्यात्मिक द्रष्टि से तो दुःख है ही नहीं। दादाश्री : हा, मगर ऐसी बात बोलने से तो नहीं चलेगा। अध्यात्म में तो कुछ दुःख ही नहीं है लेकिन ऐसा व्यवहार में नहीं चलेगा। हरेक आदमी को दु:ख होता है, वो fact बात है और 'ज्ञानी पुरुष' को तो आधि, व्याधि और उपाधि में भी समाधि रहती है, वो भी fact बात है। आपको कभी दुःख हुआ है? प्रश्नकर्ता : मैं मान रहा हूँ कि अध्यात्म में दुःख है ही नहीं। दादाश्री : वो तो आपकी मान्यता से है, आपकी belief में ऐसा है कि दुःख है ही नहीं। मगर आपको तो दुःख है कि नहीं? प्रश्नकर्ता : वो तो वेदना है। दादाश्री : वेदना? तो वेदना ही दुःख है। प्रश्नकर्ता : दु:ख मन को होगा, वेदना शरीर को होगी। दादाश्री : नहीं, वेदना ही मन को होती है। शरीर को भी वेदना होती है। मगर वेदना क्यों बोला? कि मन है इसलिए वेदना बोला, मन नहीं होता तो वेदना नहीं होती थी। मन को ही वेदना होती है। सारा जगत अंधश्रद्धा पे चलता है। ये पानी पीते है, तो उसमें किसी ने poison नहीं डाला उसकी क्या गारंटी है? मगर अंधश्रद्धा से पानी पीता है न?! ये खाना खाते है, उसमें क्या डाला है, उसकी क्या कुछ गारंटी है? मगर जगत में सब अंधश्रद्धा पे ही रहते है।
SR No.009601
Book TitleSarva Dukho Se Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Foundation
Publication Year2003
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size94 KB
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