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प्रेम होगा, जब निर्दोष दिखेगा, तब प्रेम उत्पन्न होगा। यह मेरा-तेरा, वह कब तक लगता है? कि जब तक दूसरे को अलग मानते हैं तब तक। उसके साथ भेद है तब तक, यह मेरा लगता है उससे। तो इस अटेचमेन्टवाले को मेरा मानते हैं और डिटेचमेन्टवाले को पराया मानते हैं, वह प्रेमस्वरूप किसी के साथ रहता नहीं।
इसलिए यह प्रेम वह परमात्मा गुण है, इसलिए हमें वहाँ पर खुद को वहाँ सारा ही दुख बिसर जाता है उस प्रेम से। मतलब प्रेम से बंधा यानी फिर दूसरा कुछ बंधने को रहा नहीं।
प्रेम कब उत्पन्न होता है? जो अभी तक भूलें हुई हों उनकी माफ़ी माँग लें, तब प्रेम उत्पन्न होता है।
उनका दोष एक भी नहीं हुआ, पर मुझे दिखा इसलिए मेरा दोष था।
जिसके साथ प्रेमस्वरूप होना हो न, वहाँ इस तरह करना। तब आपको प्रेम उत्पन्न होगा। करना है या नहीं करना प्रेम?
प्रश्नकर्ता : हाँ दादा।
दादाश्री : हमारा यही तरीका होता है सारा। हम जिस तरह तर गए हैं उसी तरीके से तारते हैं सभी को।
आप प्रेम उत्पन्न करोगे न?! प्रेमस्वरूप हो जाएँ तब सामनेवाले को अभेदता रहती है। सब हमारे साथ उस तरह से अभेद हो गए हैं। यह रीति खुली कर डाली।
सर्व में मैं देखें वह प्रेममूर्ति अब जितना भेद जाए, उतना शुद्ध प्रेम उत्पन्न होता है। शुद्ध प्रेम को उत्पन्न होने के लिए क्या जाना चाहिए अपने में से? कोई वस्तु निकल जाए तब वह वस्तु आएगी। यानी कि यह वेक्युम रह नहीं सकता। इसलिए इसमें से भेद जाए, तब शुद्ध प्रेम उत्पन्न होता है। इसलिए जितना भेद
जाए उतना शुद्ध प्रेम उत्पन्न होता है। संपूर्ण भेद जाए तब संपूर्ण शुद्ध प्रेम उत्पन्न होता है। यही रीति है।
आपको समझ में आया 'पोइन्ट ऑफ व्यू'? यह अलग तरह का है और प्रेममूर्ति बन जाना है। सब एक ही लगे, जुदाई लगे ही नहीं। कहेंगे, 'यह हमारा और यह आपका।' पर यहाँ से जाते समय 'हमारा-आपका' होता है?! इसलिए इस रोग के कारण जुदाई लगती है। यह रोग निकल गया, तो प्रेममूर्ति हो जाता है।
प्रेम यानी यह सारा ही 'मैं' ही हूँ, 'मैं' ही दिखता हूँ। नहीं तो 'तू' कहना पडेगा। 'मैं' नहीं दिखेगा तो 'त' दिखेगा। दोनों में से एक तो दिखेगा ही न? व्यवहार में बोलना ऐसे कि 'मैं, तू।' पर दिखना चाहिए तो 'मैं' ही न! वह प्रेमस्वरूप यानी क्या? कि सभी को अभेदभाव से देखना, अभेदभाव से वर्तन करना, अभेदभाव से चलना, अभेदभाव ही मानना। 'ये अलग हैं' ऐसी-वैसी मान्यताएँ सब निकाल देनी। उसका नाम ही प्रेमस्वरूप। एक ही परिवार हो ऐसा लगे।
ज्ञानी का अभेद प्रेम जुदाई नहीं पड़े, उसका नाम प्रेम। भेद नहीं डालना, उसका नाम प्रेम। अभेदता हुई वही प्रेम। वह प्रेम नोर्मेलिटी कहलाती है। भेद हो तब अच्छा काम कर आए न, तो खुश हो जाता है। वापिस थोड़ी देर बाद उल्टा काम, चाय के प्याले गिर गए तो चिढ़ जाता है, यानी अबव नॉर्मल. बिलो नॉर्मल हुआ करता है। प्रेम, वह काम देखता नहीं है। मूल स्वभाव के दर्शन करता है। काम तो, हमें नोर्मेलिटी में प्रोब्लम न हों, वैसे ही काम होते
हैं।
प्रश्नकर्ता : हमें आपके प्रति जो भाव जागृत होता है वह क्या है?
दादाश्री : वह तो हमारा प्रेम आपको पकड़ता है। सच्चा प्रेम सब जगह सारे जगत् को पकड़ सकता है। प्रेम कहाँ कहाँ होता है? प्रेम वहाँ होता है कि जहाँ अभेदता होती है। यानी जगत् के साथ अभेदता कब