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पैसों का व्यवहार
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पैसों का व्यवहार
लाख-लाख रुपये जायें तो हम (दादाजी) जाने देंगे, क्योंकि रुपये जानेवाले हैं और हम रहनेवाले हैं। कुछ भी हो पर हम कषाय नहीं होने देंगे। लाख रुपये गये तो उसमें क्या हुआ? हम खुद तो सलामत हैं!
इन सभी बातों को अलग-अलग रखना। धंधे में घाटा हो तो कहें कि धंधे को घाटा हुआ, क्योंकि हम (खुद) घाटे-मुनाफे के मालिक नहीं हैं, इसलिए घाटा हम अपने सिर क्यों लें? हमें घाटा-मुनाफा स्पर्श नहीं करता। और यदि घाटा हुआ और इन्कमटैक्सवाला आये, तो धंधे से कहें कि, 'हे धंधे, तुझे चुकता करना है, तेरे पास चुकाने को हो तो इसको चुकता कर दे।'
हम से (दादाजी से) कोई ऐसा पूछे कि, 'इस साल घाटे में रहे हो?' तो हम बताएँ कि, 'नहीं भैया, हम घाटे में नहीं हैं, धंधे को घाटा हुआ है।' और मुनाफा होने पर कहेंगे कि, 'धंधे को मुनाफा हुआ है।' हमें घाटा-मुनाफा होता ही नहीं है।
कोई सेठ मुझ से आग्रह करें कि, 'नहीं, आपको तो प्लेन में कलकत्ता आना ही होगा।' में 'नहीं, नहीं' करता रहूँ फिर भी आग्रह नहीं छोडें। तब फिर मुझे प्लेन में कलकत्ता जाना पड़े। इसलिए उस घट-बढ़ (प्लेन के किराये) का हिसाब ही नहीं रखना। जब किसी दिन हमारे से डेढ़ सौ का घाटा हुआ हो उस दिन पाँच सौ अनामत के खाते में जमा ले लें ताकि साढ़े तीन सौ सिलक में हमारे पास रहेंगे। अर्थात् डेढ़ सौ के घाटे की जगह हमें साढ़े तीन सौ का सिलक नजर आये। घाटा लगे, तो उस दिन हम रुपये 'जमा राशि' के नाम पर जमा कर लें। इसलिए हमारे पास सिलक, अनामत सिलक रहे। क्योंकि यह खाता-बही कछ कायम के लिए है? दो-चार या आठ साल के बाद फाड़ नहीं देते? यदि सच्चा होता तो कोई फाड़ता? यह तो सभी मन मनाने के साधन हैं। इसलिए ऐसा है, यह संसार सारा गप्प गुणा गप्प एक सौ चौवालीस है, बारह गणा बारह एक सौ चौवालीस नहीं है यह। बारह गणा बारह एक सौ चौवालीस होता तो वह एक्झेक्ट सिद्धांत कहलाता। संसार माने गप्प गुणा गप्प एक सौ चौवालीस और मोक्ष माने बारह गुणा बारह एक सौ चौवालीस।
समभाव किसे कहते हैं? समभाव, मुनाफा और घाटा दोनों को समान कहता है। समभाव माने, मुनाफे की जगह घाटा हो तो भी हरकत नहीं, मुनाफा हो तो भी हर्ज नहीं। मनाफा होने पर उत्तेजना नहीं होगी
और घाटे में डीप्रेशन (उदासी) नहीं आता। अर्थात् कुछ असर नहीं होता। द्वंद्वातीत हुए होते हैं।
मैं तो, धंधे में घाटा हुआ हो तो भी लोगों को बता देता और यदि मुनाफा हुआ हो तब भी लोगों से कह देता! पर लोगों के पछने पर ही. वरना अपने धंधे की बात ही नहीं करता! लोग पूछे कि 'आपको अभी घाटा हुआ है क्या यह बात सही है?' तब बता दें कि. 'वह बात सही है।' इस पर कभी हमारे हिस्सेदार ने आपत्ति नहीं की कि 'आप क्यों कह देते हैं? क्योंकि ऐसा कहना तो अच्छा, ताकि लोग कर्ज पर (पैसे) देते हों तो बंद हो जाये और अपना कर्ज बढ़ने से कम हो जायेगा। लोग तो क्या कहेंगे? 'ऐसा नहीं कहना चाहिए, वरना लोग उधार नहीं देंगे।' अरे, कर्ज तो हमारा बढ़ेगा न, इसलिए घाटा हुआ हो तो भी स्पष्ट कह दो न, कि भाई घाटा हुआ है।
घाटा होने पर सामनेवाले को खुलकर कह देना ताकि खुद हलका हो जाये। वरना अकेला मन में उलझे रहने से बोझ ज्यादा लगे।
जितनी भी परेशानी आये उन्हें ज्ञान से निगल जाना। ज्ञान से पहले जब हम व्यापार करतें थे तब बहुत परेशानियाँ आई थीं। उसमें से पार उतरे तभी ऐसा ज्ञान हुआ। हमारे बेटे-बेटी के गुजर जाने पर भी हमने पेड़े खिलाये थे।
धंधे में बहुत मुश्किल आ जाये, तब तो हम इसके बारे में किसी से बात ही नहीं करते थे। हीराबा को जब बाहर से पता चले कि धंधे में मुश्किल है और वे हमसे पूछे कि, 'क्या घाटा हुआ है?' तब हम कहतें कि 'नहीं नहीं। ये लीजिए रुपये, पैसे आये हैं, आपको चाहिए?' तब हीराबा कहती कि, 'यह लोग तो कह रहे हैं कि घाटा हुआ है।' तब मैं कहूँ कि, 'ऐसा नहीं है, हम तो ज्यादा कमाये हैं। पर यह बात ख़ानगी रखना।'