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पाप-पुण्य
दादाश्री : अधिक हितकारी नहीं है, पर वह ज़रूरत तो है न? किसी समय एक्सेप्शनल (अपवाद) केस में पाप हो तो बहुत हितकारी हो जाता है, परन्तु पुण्यानुबंधी पाप होना चाहिए। पुण्यानबंधी पाप हो न, तो अधिक हितकारी हो जाता है।
पाप-पुण्य, दोनों भाँति? प्रश्नकर्ता : पुण्यशाली हो उसे सभी 'आऔ, बैठो' करें, तो उससे उसका अहम् नहीं बढ़ेगा?
दादाश्री : ऐसा है न, कि यह बात जिन्हें ज्ञान है उनके लिए नहीं है। यह तो संसारी बात है, जिसके पास 'ज्ञान' है उसे तो पुण्य भी नहीं रहा और पाप भी नहीं रहा! उसे तो दोनों का 'निकाल' ही करना शेष रहा। क्योंकि पुण्य और पाप दोनों भ्रांति हैं। पर जगत् ने उसे बहुत क़ीमती माना है! इसलिए यह तो जगत् की बात करते हैं। पर इस जगत् में लोग बिना काम के छटपटा रहे हैं।
बहुत पुण्य, बढ़ाए अहंकार... ऐसा है न, यह कलियुग है, उसमें जो इच्छाएँ हों और उनकी प्राप्ति हो जाए तो उसका अहंकार बढ़ जाता है और फिर गाड़ी उल्टी चलती है। इस कलियुग में हमेशा उसे ठोकर लगे न तो अच्छा है। अर्थात् हर एक युग में यह वाक्य अलग-अलग प्रकार से होता है। इसलिए इस युग का अनुसरण करके इस तरह कह सकते हैं। अभी तो इच्छा के अनुसार मिल जाए तो उसका अहंकार बढ़ जाए, मिलता है सब पुण्य के हिसाब से और बढ़ता क्या है? अहंकार, 'मैं हँ'। इसलिए ये जितनी इच्छाएँ होती हैं, उनके अनुसार नहीं हो, तब उसका अहंकार ठिकाने रहता है और बात को समझने लगता है। ठोकर लगे तब समझ में आता है, नहीं तो समझ में ही नहीं आता न! इच्छा हो और मिल जाए, उससे तो ये लोग ऊँचे चढ़ गए हैं। इच्छा के अनुसार मिला, इसलिए यह दशा हुई है बेचारों की। जो पुण्य थे वे तो खर्च हो गए और उल्टे फँसाव में आ गए और अहंकार गाढ़ हो गया! अहंकार बढ़ते देर नहीं लगती। फल कौन देता है? पुण्य
पाप-पुण्य देता है और मन में क्या समझता है कि 'मैं ही करता हूँ।' इसलिए अहंकारी को तो मार पड़े वही अच्छा। इच्छा हुई और तुरन्त मिल गया कि फिर घर में पैर तो ऊँचा ही रखता है। बाप को भी कुछ नहीं मानता और किसीको भी कुछ नहीं समझता। इसलिए इच्छा हुई और मिले तो समझना कि अधोगति में जानेवाला है, उसका दिमाग़ बढ़ते-बढ़ते चक्रम हो जाता है। थोड़े-बहुतों को अभी इच्छा के अनुसार मिला है, वह तो अभी लाखों के फ्लेट में रहते हैं और उन सभी की जानवर जैसी दशा हो गई है। फ्लेट होगा लाखों का, पर वह उसके लिए हितकारी नहीं है, पर यह तो उन पर दया रखने जैसी स्थिति है।
पुण्य से भी बढ़े संसार... प्रश्नकर्ता : पुण्य के बंधन से संसार तो बढ़ता है, वैसा भावार्थ हुआ न?
दादाश्री : पुण्य ऐसे हितकारी नहीं है। पुण्य तो एक प्रकार से हैल्प करता है। पाप हो, तो ज्ञानी पुरुष मिलें ही नहीं। ज्ञानी परुष को मिलना हो, पर पूरा दिन मिल में नौकरी कर रहा हो तो किस तरह मिले? इसलिए इस तरह पुण्य हैल्प करता है। और वह भी पुण्यानुबंधी पुण्य हो वही हैल्प करता है।
प्रश्नकर्ता : जिस तरह पाप से संसार बढ़ता है, उसी तरह पुण्य से भी संसार बढ़ता है न?
दादाश्री : पुण्य से भी संसार तो बढ़ता है, पर यहाँ से जो मोक्ष में गए हैं न, वे जबरदस्त पुण्यशाली थे। उनके आसपास यदि रानियाँ देखने जाएँ तो दो सौ-पाँच सौ तो रानियाँ होती थी और राज्य तो बहुत बड़ा होता था। खुद को पता भी नहीं होता था कि कब सूर्यनारायण उगे और कब अस्त हो गए, पुण्यशाली तो ऐसे वैभव में जन्मे होते हैं ! रानियाँ बहत सारी होती थीं। वैभव हो तो भी वे ऊब जाते थे कि इस संसार में क्या सख है? पाँच सौ रानियों में से पचास रानियाँ उन पर खुश होती थीं, बाक़ी की मुँह चढ़ाकर फिरती रहती थी। कितनी तो राजा को मरवाने फिरती