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पाप-पुण्य
धर्म का पुण्य तो ऐसा है, धर्म हर एक जगह पर मदद करता है। चाहे जैसी मुश्किल में मदद करता है। वैसा धर्म का पुण्य होता है। पुण्य हैल्प करता ही है। अपना ज्ञान तो अलग ही प्रकार का है। प्रत्यक्ष हाज़िर (हाजराहजूर) ज्ञान है!
पुण्य भी फाइल है और पाप भी फाइल है। पुण्य प्रमाद करवाता है और पाप जागृत रखता है। पुण्य तो उल्टे यह आइस्क्रीम खाओ, यह फ्रूट खाओ, वैसे सब प्रमाद करवाते हैं। उसके बदले यह कड़वी दवाई पिला दो न, तो जागृत तो रहे!
ग्राहक भेजनेवाला कौन? ये सब लोग मोटल चलाते हैं, उसमें मोटल में है तो आनेवाले को कौन भेजता होगा? आप मोटल चलाते हो न, कौन भेजता होगा?
प्रश्नकर्ता : मालूम नहीं।
दादाश्री : वही आपका पुण्य है। भगवान नहीं भेजता है, दूसरा कोई नहीं भेजता है। आपका पुण्य भेजता है और पाप का उदय हो तो सबकी मोटल भरी हुई हों पर आपकी नहीं भरती। अच्छे से अच्छी बनाई हो, फिर भी नहीं भरती।
किसीको दोष दिया जाए वैसा है? कोई चीज़ ऐसी नहीं है कि जो इन पुण्यशालियों को नहीं मिले, पर पुण्य वैसी पूरी नहीं लाए हैं इसलिए। नहीं तो हर एक चीज़ जैसी चाहिए वैसी मिले ऐसा है। पर लोग लौकिक ज्ञान में पड़े हुए हैं और तब तक कभी भी 'वस्तु' प्राप्त होती नहीं है। एक तो दिमाग़ का ज़रा तेज़ होता है, उसमें फिर उसे ऐसा ज्ञान मिले कि 'बधे नार पांसरी'(नारी ताड़न की अधिकारी), तब तो उसे चाहिए सो मिला गया! यह जो ज्ञान मिला, वह ज्ञान उसे फल देगा या नहीं देगा? फिर क्या होगा? जिस स्त्री की कोख से तीर्थकर जन्मे उस स्त्री की दशा तो देखो. आपने कैसी की? कितना अन्याय है? क्योंकि जिस स्त्री की कोख से चौबीस तीर्थंकर जन्मे,
पाप-पुण्य बारह चक्रवर्ती जन्मे, वासुदेव जन्मे, वहाँ पर भी ऐसा किया? भले ही आपको कड़वा अनुभव हुआ हो। उसमें स्त्री जाति की किसलिए निंदा करते हो? आप बारह रुपये डज़न के भाव से आम लेकर आते हो, पर खट्टे निकलते हैं, पर दूसरे तीन रुपये डज़न के भाववाले बहुत मीठे निकलते हैं। यानी बहुत बार वस्तु भाव के ऊपर आधारित नहीं होती, आपके पुण्य पर आधारित होती है। आपका पुण्य यदि ज़ोर करें, तो आम कैसा मीठा निकलता है, और वह खट्टा निकला उसमें आपके पुण्य का ज़ोर नहीं था, उसमें किसीको दोष कैसे दिया जाए?
इसलिए यह तो पुण्य कच्चा पड़ जाता है, दूसरा और क्या है यह? बड़ा भाई जायदाद नहीं देता हो तो क्या बड़े भाई का दोष है? अपना पुण्य कच्चा है। उसमें दोष किसीका है नहीं। यह तो पुण्य को तो वह सुधारता नहीं है और बड़े भाई के साथ निरे पाप बाँधता है! फिर पाप के दोने भरता है।
___ हमें मकान की अड़चन हो और कोई मनुष्य मदद करे और मकान रहने के लिए दे दें, तो जगत् के मनुष्य को उसके ऊपर राग हो जाता है और वह जब मकान लेना चाहे तो उस पर द्वेष होता है। यह रागद्वेष है, अब वास्तव में तो राग-द्वेष करने की ज़रूरत नहीं है, वह निमित्त ही है। वह देनेवाला और ले लेनेवाला, दोनों निमित्त हैं। आपके पुण्य का उदय हो तब वह देने के लिए मिलता है, पाप का उदय हो तब लेने के लिए मिलता है। उसमें उसका कोई दोष नहीं है। आपके उदय पर आधारित है। सामनेवाले का किंचित् मात्र दोष नहीं है। वह निमित्त मात्र है। वैसा अपना ज्ञान कहता है, कैसी सुंदर बात करता है!
अज्ञानी को तो कोई मीठा-मीठा बोले वहाँ पर राग होता है और कड़वा बोले वहाँ द्वेष होता है। सामनेवाला मीठा बोले, वह खुद का पुण्य प्रकाशित है और सामनेवाला कड़वा बोले, तो वह खुद का पाप प्रकाशित है। इसलिए मूल बात में, दोनों में सामनेवाले का कुछ लेना-देना नहीं है। बोलनेवाले को कोई लेना-देना नहीं है। सामनेवाला मनुष्य तो निमित्त ही है। जो यश का निमित्त होता है उससे यश मिला करता है और अपयश