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________________ दृष्टि से संसार विराम पाता है। वह खुद संपूर्ण निर्दोष होता है। निर्दोष स्थिति पानी किस तरह? दूसरों के नहीं पर खुद के ही दोष देखने से। खुद के दोष कैसे-कैसे होते हैं, उसकी सूक्ष्म समझ यहाँ अगोपित होती है। बहुत ही बारीक-बारीक दोष दृष्टि को खुला करके निर्दोष दृष्टि बनाने की परम पूज्य दादाश्री की कला यहाँ सुज्ञ पाठक को जीवन में बहुत ही उपयोगी हो सके, वैसा है। निमित्त के अधीन, संयोग, क्षेत्र, काल के अधीन निकली हुई वाणी के प्रस्तुत संकलन में भासित क्षति रूपी दोष को क्षम्य मानकर, उसके प्रति भी निर्दोष दृष्टि रखकर मुक्तिमार्ग का पुरुषार्थ का प्रारंभ करके संपूर्ण निर्दोष दृष्टि प्राप्त हो सके वही अभ्यर्थना। - डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद (उपोद्घात) निजदोष दर्शन से... निर्दोष! 'दूसरों के दोष देखने से कर्म बँधते हैं, खुद के दोष देखने से कर्म में से छूटते हैं।' यह है कर्म का सिद्धांत। 'हुं तो दोष अनंत नुं भाजन छु करुणाळ।' ('मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणामय।') - श्रीमद् राजचंद्र। अनंत जन्मों से अनंत दोषों का इस जीव ने सेवन किया है। इन अनंत दोषों का मूल, एक ही दोष, एक ही भूल है, जिसके आधार पर अनंत दोषों की जकड़न अनुभव में आती है। वह कौन-सी भूल होगी? सबसे बड़ा मूल दोष 'खुद के स्वरूप का अज्ञान' वही है ! 'मैं कौन हूँ?' इतना ही नहीं समझने के कारण तरह-तरह की रोंग बिलीफ़ खड़ी हो गई हैं और उनमें ही रचे-बसे हए हैं अनंत जन्मों से। कभी किसी जन्म में ज्ञानी पुरुष से भेंट हो जाए, तब 'वह' भूल खतम होती है, फिर सारी भूलें खतम होने लगती हैं। क्योंकि 'देखनेवाला' जाग्रत हो जाता है। इसलिए सभी भूलें दिखने लगती हैं और जो भूल दिखाई दी वह अवश्य जाती है। इसीलिए तो कृपालुदेव ने आगे कहा, 'दीठा नहीं निज दोष तो तरीये कोण उपाय?' ('दिखे नहीं निज दोष तो तरें कौन उपाय?') खुद के दोष दिखें नहीं तो पार किस तरह उतरेंगे? वह तो देखनेवाला' जाग्रत हो जाए तब हो पाता है। जगत् की वास्तविकता का पता नहीं होने से भ्रांत मान्यताओं में, कि जो पग-पग पर विरोधाभासी होती हैं, उनमें मनुष्य उलझा करता है। जिसे इस संसार में निरंतर बोझा लगता रहता है, बंधन पसंद नहीं है, मुक्ति के जो चाहक 10
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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