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निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
विश्व की वास्तविकताएँ! प्रश्नकर्ता : जगत् की वास्तविकता के विषय में कुछ कहिए।
दादाश्री : जगत् के लोग व्यवहार में दो तरह से रहते हैं, एक लौकिक भाव से और एक अलौकिक भाव से। इसमें जगत् का काफी कुछ भाग लौकिक भाव से ही रहता है, कि भगवान ऊपर हैं और भगवान सब करते हैं। और वापस खुद भी करता जाता है, भगवान भी करते जाते हैं। उसे कुछ विरोधाभास का ख्याल नहीं है और उसे भगवान सिर पर रहें तो डर रहा करता है कि खुदा ये करेगा और ये करेगा। ऐसा करके गाड़ी चलती रहती है।
पर जो अत्यंत विचारशील हुआ है, जिसे सिर पर भाररूप बोझा किसीका चाहिए ही नहीं, तो उसके लिए असल हक़ीक़त अलौकिक होनी ही चाहिए न? अलौकिक में कोई ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) है ही नहीं। जगत् में आपकी भूलें ही ऊपरी हैं, आपके ब्लंडर्स (मूलभूत भूल)
और मिस्टेक्स (सामान्य भूलें) वे दो ही ऊपरी हैं। दूसरा कोई ऊपरी है ही नहीं।
हमारा ऊपरी कौन ? ऐसा कौन कह सकता है? तब ओहोहो! ये कितने निडर होंगे? और डर किसका रखना है? मेरी खोज है कि आपका ऊपरी ही कोई नहीं है, इस वर्ल्ड में। और जिसे आप ऊपरी मानते हो, भगवान को, वह तो आपका स्वरूप है। भगवान का स्वरूप ऊपरी हो नहीं सकता, कभी भी। उससे अनजान हैं इसलिए वे ऊपरी हो नहीं सकते। तब ऊपरी
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! कौन? आपके ब्लंडर्स और मिस्टेक्स। ये दो ही यदि नहीं हों, तो आपका कोई ऊपरी है ही नहीं। मेरे ब्लंडर्स और मिस्टेक्स निकल गए हैं. इसलिए मेरा ऊपरी कोई भी नहीं है। आप जब ब्लंडर्स और मिस्टेक्स निकाल दोगे, तब आपका ऊपरी कोई नहीं रहेगा। अभी पुलिसवाले के साथ वहाँ टकराव करके आओ, यहाँ जल्दी आने के लिए, निबटाए बिना आओ, पुलिसवाला कहे, 'गाड़ी खड़ी रखो', और आपने खड़ी नहीं रखी तो फिर यहाँ पुलिसवाला आएगा। तब आप तुरन्त समझ जाओगे कि यह मेरे लिए आया है। क्योंकि भूल की. वह हमें तुरन्त पता चल जाता है कि यह भूल की है। वह भूल मिटाओ। मेरा क्या कहना है? निरी भूलें ही हुई हैं। उन्हें मिटाओ। अब तक दूसरों की ही भूलें दिखी हैं, खुद की भूलें दिखीं नहीं हैं। खुद की भूलें देखें, उन्हें मिटाएँ, वे भगवान हो जाएँ!
मूल भूल कौन-सी? और इस तरफ साधु-सन्यासी इच्छाओं को धकेलते रहते हैं। वे इच्छाएँ तो कुछ हटें ऐसी नहीं हैं। डबल होकर आएँ ऐसी हैं। मूल भूल कहाँ हुई है, वह खबर नहीं है लोगों को। वे इच्छाएँ होती हैं, वह भूल नहीं है। उसकी मूल भूल दबाएँ न हम, बटन दबाएँ न हम, तब पंखा बंद हो जाता है। यों ही पंखा पकड़ने जाएँ तो कुछ होता नहीं है? उसकी मूल भूल दबाएँ।
मैं चंदूभाई हूँ' वही मूल भूल है। मूल भूल ही यह है। वह आरोपित भाव है। सच्चा भाव नहीं है वह। जैसे यहाँ कोई इन्दिरा गांधी जैसे कपड़े पहनकर और सबसे कहे, 'मैं इन्दिरा गांधी हैं' और ऐसा कहकर उसका लाभ उठाए, तो उसका गुनाह लागू होता है या नहीं होता है? उसी तरह 'मैं चंदूभाई हूँ', उसका निरंतर लाभ उठाता है। वह आरोपित भाव कहलाता है, उसका गुनाह!
इसलिए, आपकी भूलें और आपके ब्लंडर्स, ये दो ही आपके ऊपरी हैं। आपके ब्लंडर्स क्या होंगे? 'मैं चंदूभाई हूँ' वह पहला ब्लंडर। मैं इनका