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________________ जानने की जरूरत है, जगत् निर्दोष देखने की ज़रूरत है! फिर भी जिसे जो अनुकूल हो, वह करे। किसीकी टीका करने की ज़रूरत नहीं है, नहीं तो उसके साथ नये करार से बँधेगे। स्वकर्म के अधीन ही भोगवटा खुद को आता है, फिर दूसरे किसका गुनाह? महावीर का सच्चा शिष्य कौन? जिसे लोगों के दोष दिखने कम होने लगे हैं! संपूर्ण दशा में नहीं, तो भी शुरूआत तो हुई! धर्म में एक-दूसरे के दोष दिखते हैं, वह मेरा-तेरा की भेदबुद्धि से और उसके लिए श्रीमद् राजचंद्रजी ने कहा है, 'गच्छ-मतनी जे कल्पना, ते नहीं सद्व्यवहार।' (गच्छ-मत की जो कल्पना, वह नहीं सद्व्यवहार!') दादाश्री कहते हैं कि, 'आज हमसे जो कुछ बोला जाता है वह गतभव में रिकॉर्ड हुआ था, वही बोला जाता है। पिछले भव की भूलवाली रिकॉर्ड बनी थी। इसलिए किसी धर्म में 'यह भल है' ऐसा बोला जाता है। पर आज का ज्ञान-दर्शन उसे संपूर्ण निर्दोष देखता है और जो बोला गया, उसका तुरन्त प्रतिक्रमण होकर शुद्ध हो जाता है!' अक्रम मार्ग का दादाश्री का गज़ब का ज्ञानीपद प्रकट हुआ है इस काल में! किसीकी कल्पना में नहीं आए ऐसी यह आश्चर्यजनक कुदरत की भेंट है जगत् को। निर्दोष दृष्टि हुई, तब से खुद प्रेम स्वरूप हुए और उनके शुद्ध प्रेम ने कितनों को संसारमार्ग में से मोक्षमार्ग की ओर मोड़ा! उस अघट-अबढ़ परमात्म प्रेम को कोटि-कोटि नमस्कार !! निर्दोष जगत् दिखे, तब मुक्त हास्य प्रकट होता है। मुक्त हास्य देखकर ही कितने रोग जाते हैं। ज्ञानी पुरुष का चारित्रबल सारे ब्रह्मांड को एक उँगली पर उठा ले ऐसा होता है! और वह चारित्रबल कहाँ से प्रकट होता है? निर्दोष दृष्टि से! - डॉ. नीरूबहन अमीन अनुक्रमणिका निजदोष दर्शन से... निर्दोष ! विश्व की वास्तविकताएँ १ आलोचना ज्ञानी के पास हमारा ऊपरी कौन? १ वैसे-वैसे खिलती... मूल भूल कौन-सी? २ थी ही नहीं तो... भूलें कब पता चलती हैं? ३ दस के किए एक! कौन जगत् का मालिक? ३ सारे दुःखो का... नासमझी ने सर्जित किए दुःख ४ नहीं कोई दोषित जगत् में सामनेवाला तो है मात्र निमित्त ५ तब से हुआ समकित ! नहीं लगते बोल, बगैर... ६ अंत में तो वे प्राकृत गुण काटना निमित्त को? ६ सबसे बड़ा दोष अनुमोदन का फल ७ दीठा नहीं निजदोष तो... नहीं चुनौती, तो पूर्णता... ८ नहीं देखना दोष किसीके एक में से अनंत, अज्ञानता से ९ तब आया महावीर के... दो ही वस्तुएँ विश्व में ९ नहीं देखे खुद के ही दोष निमंत्रण धौल को... १० वह कहलाए जैन लुटेरा भी दूर रहे शीलवान से ११ दोष,उतने ही चाहिए प्रतिक्रमण नहीं रहा भुगतना ज्ञानी को १२ आत्मा खुद ही थर्मामीटर जैसा भूल मिटाए वह परमात्मा १२ वह है भूलों का स्वरूप दिए आधार भूलों को... १३ ज्ञानी की तत्त्वदृष्टि चाबी भूलें मिटाने की १३ तर गया वही तारे बंद करो कषाय का पोषण १४ तब भूल मिटाई कहलाती है अंधापन नहीं देखने देता... १५ भूल निकाले, अंदर कौन? बुद्धि की वकालत से... १६ अंधेरे की भूलें करें ज्ञानी इकरार... १६ नहीं उसका ऊपरी कोई दोष स्वीकारो,उपकार... १८ दृष्टि निजदोषों के प्रति... 'यह' प्रपंच करनेवाला... २० प्रमत्त भाव से दिखें परदोष.... अरे, ले बोधपाठ इस से २० वीतरागों ने कहा मुक्ति हेतु ४५ भूल मिटाने की रीति... २० ज़रूरत है भूल बिना के ज्ञान... ४६
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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