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मृत्यु समय, पहले और पश्चात्...
मृत्यु समय, पहले और पश्चात्...
समाधि मरण इसलिए मृत्यु से कहें कि "तुझे जल्दी आना हो तो जल्दी आ, देर से आना हो तो देर से आ, मगर 'समाधि मरण' बनकर आना!"
और यह चौथी रह गई। ये तीन ब्याह दी और छोटी अकेली रह गई। रक़म करी कि वह आगे आकर खड़ी रहेगी। और वह बचपन में अच्छा किया हुआ नहीं आएगा, बुढ़ापे में अच्छा किया हुआ आएगा।
कुदरत का कैसा सुंदर कानून! अतः यहाँ से जाता है, वह भी कुदरत का न्याय, ठीक है न! लेकिन वीतराग सावधान करते हैं कि भाई पचास साल हो गए अब सँभल जा!
पचहत्तर वर्ष की आयु हो तो पचासवें वर्ष में पहली फोटो खिंचती है और साठ वर्ष का आयुष्य हो, तब चालीसवें वर्ष में फोटो खिंचती है। इक्यासी वर्ष का आयुष्य हो तो चौवनवें वर्ष में फोटो खिंच जाती है। लेकिन तब तक इतना टाइम फ्री ऑफ कॉस्ट (मुफ्त) मिलता है, दो तिहाई हिस्सा फ्री में मिलता है और एक तिहाई भाग, उसकी फिर फोटो खिंचती रहती हैं। कानून अच्छा है या जोर-ज़बरदस्तीवाला है? जोर-ज़बरदस्तीवाला नहीं है न? न्यायसंगत है न? दो तिहाई उछल-कूद की हो, उसकी हमें आपत्ति नहीं है, पर अब सीधा मर न, कहते हैं!
समाधि मरण अर्थात् आत्मा के सिवाय और कुछ याद ही नहीं हो। निज स्वरूप शुद्धात्मा के अलावा दूसरी जगह चित्त ही नहीं हो, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार, कुछ भी डाँवाडोल हो नहीं! निरंतर समाधि ! देह को उपाधी हो, फिर भी उपाधी छुए नहीं! देह तो उपाधीवाला है कि नहीं?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : केवल उपाधीवाला ही नहीं, व्याधिवाला भी है या नहीं? ज्ञानी को उपाधी छूती नहीं। व्याधि हुई हो तो वह भी छूती नहीं।
और अज्ञानी तो व्याधि नहीं हो, तो उसे बुलाता है ! समाधि मृत्यु अर्थात् 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान रहे! अपने कितने ही महात्माओं की मृत्यु हुई, उन सभी को 'मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान रहा करता था।
गति की निशानी प्रश्नकर्ता : मृत्यु समय ऐसी कोई निशानी है कि कभी पता चले कि इस जीव की गति अच्छी हुई या नहीं?
दादाश्री : उस समय, मेरी लड़की ब्याही कि नहीं? ऐसा हुआ नहीं है। ऐसी सभी घर की ही भेजाफोड़ी करता रहता है। उपाधी करता रहता है। इसलिए समझना कि इसकी हो गई अधोगति। और आत्मा में रहता हो अर्थात् भगवान में रहता हो तो अच्छी गति हुई।
प्रश्नकर्ता : लेकिन बेहोश रहे थोड़े दिन, तो?
क्षण-क्षण भाव मरण
प्रश्नकर्ता : देह की मृत्यु तो कहलाती है न?
दादाश्री : अज्ञानी मनुष्यों का तो दो तरह का मरण होता है। रोज़ भाव मरण होता रहता है। क्षण-क्षण भाव मरण और फिर अंततः देह की मृत्यु होती है। लेकिन हररोज़ उसके मरण, रोना रोज का। क्षणक्षण भाव मरण। इसलिए कृपालुदेव ने लिखा है न!
'क्षण-क्षण भयंकर भाव मरणे कां अहो राची रह्यो!' (क्षण-क्षण भयंकर भाव मृत्यु, क्यों अरे प्रसन्न है!) ये सभी जी रहे हैं, वे मरने के लिए या किस लिए जी रहे हैं?