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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार
पति के साथ इस प्रकार वर्तन करना चाहिए। इस प्रकार यानी वह टेढ़ा हो तो तू सीधे चलना। उसका समाधान होना चाहिए, हल निकालना चाहिए। उसकी झगड़ने की तैयारी हो तब हमें एकता रखनी चाहिए। वह अलगाव रखे फिर भी हमें एकता रखनी चाहिए। वह बार बार अलग होने की बातें करे, उस हालत में भी हमें कहना है कि हम एक हैं। क्योंकि ये सब रिलेटिव संबंध हैं। वह रिश्ता तोड़ दें और हम भी तोड़ दें तो टूट जाए कल सवेरे। अर्थात् तलाक दे देगा। तब कहे, 'मुझे क्या करना है?' मैंने उसे समझाया, उनका मूड देखकर व्यवहार करने को कहा, जब मूड में नहीं हो तब हम मन में 'अल्लाह' का नाम लेते रहना और मूड ठीक हो तब उनके साथ बातचीत शुरू करना। वह मूड में न हो और तू छेड़ेगी तो आग लग जाएगी।'
तुझे उन्हें निर्दोष देखना है। वे तुझे उल्टा-सीधा कहें फिर भी तू शान्त रहना। सच्चा प्रेम होना चाहिए। आसक्ति में तो छह-बारह महीने में फिर टूट ही जाएगा। प्रेम में सहनशीलता होनी चाहिए, एडजस्टेबल (समाधानी) होना चाहिए।
ऐसे मशरूर को मैंने पढ़ा दिया। मैंने कहा, 'तू कुछ भी नहीं करना, जब वह इस ओर तीर चलाये तब अपनी स्थिरता रखकर 'दादा, दादा' करती रहना। फिर उस ओर तीर चलाये तब स्थिरता रखकर 'दादा, दादा' करना। तू एक भी तीर मत चलाना।' फिर मैंने विधि कर दी।
बाद में पूछा कि 'तेरे ससुराल में कौन-कौन है?' तब कहे, 'मेरी सास है।' मैने पूछा, 'सास के साथ तू कैसे एडजस्टमेन्ट करेगी?' तब कहने लगी, 'उसका भी मैं सामना कर लूँगी।'
फिर मैंने उसे समझाया। बाद में कहती है, 'हाँ, दादाजी, मुझे ये सब बातें पसंद आई।' तू इस प्रकार करना तो तलाक नहीं देगा और सास के साथ मेल रहेगा। बाद में उसने मुझे एक चंदन की माला पहनाई। मैंने कहा, 'यह माला तू ले जाना और तेरे साथ रखना माला के दर्शन करने के बाद पति के साथ अपना व्यवहार चलाना, तो बहुत सुंदर चलेगा। उसने वह माला आज भी अपने पास रखी है।'
माता-पिता और बच्चों का व्यवहार उससे चरित्रबल की बात कही थी कि पति कुछ भी बोले, तुझे कुछ भी कहे, तब भी तू मौन धारण कर के, शांत भाव से रहेगी, तो तुझ में चरित्रबल उत्पन्न होगा और उसका उस पर प्रभाव पड़ेगा। वकील हो तो भी। वह कैसे भी डाँटे, तब 'दादा' का नाम लेना और स्थिर रहना। उसके मन में होगा कि यह कैसी औरत है! यह तो हार ही नहीं मानती! बाद में वह हार जायेगा। फिर उसने ऐसा ही किया, लड़की ही ऐसी थी। दादा जैसे सिखानेवाले मिलें तो फिर क्या बाकी रहें? वर्ना पहले एडजस्टमेन्ट ऐसा था, रशिया और अमरीका जैसा। वहाँ बटन दबाते ही सुलगे सब, सटासट । क्या यह मानवता है? किस लिए डरते हो? जीवन किसलिए होता है? जब संयोग ही ऐसे हैं, तब क्या करें फिर?
वे जो जीतने की तैयारी करते हैं न, इससे चरित्रबल 'लूज़' (कमजोर) हो जाता है। हम ऐसी किसी प्रकार की तैयारी नहीं करते। चरित्र का उपयोग, जिसे तुम तैयारी कहते हो, पर उससे तुम्हारे में जो चरित्रबल है वह 'लूज़' हो जाता है और अगर चरित्रबल खतम हो जाएगा, तब वहाँ तेरे पति के सामने तेरी क़ीमत ही नहीं रहेगी। इस तरह उस लड़की की समझ में अच्छी तरह बैठ गया। बाद में मझसे कहती है कि 'दादाजी, अब मैं किसी दिन हारूँगी नहीं, ऐसी गारन्टी देती हूँ।'
हमारे साथ कोई प्रपंच कर रहा हो और जवाब में हम भी वैसा करें तो हमारा चरित्रबल टूट जाएगा। कोई कितने भी प्रपंच करे लेकिन अपने प्रपंच से खुद ही उसमें फँस जाता है। लेकिन अगर तुम तैयारी करने जाओगे, तब तुम खुद उसके प्रपंच में फँसोगे। हमारे सामने तो बहुतेरे लोगों ने प्रपंच किए थे लेकिन वे प्रपंच करनेवाले फँस गये थे। क्योंकि हमें एक पलभर भी प्रतिसाद के विचार नहीं आते। वर्ना सामने तैयारी करने के विचार आये न, तब हमारा भी चरित्रबल टूट जाता है, शीलवानपन टूट जाता है।
शीलवान यानी क्या? कि वह गालियाँ देने आया हो मगर यहाँ आकर चुप बैठ जाए। हम कहें कि कुछ बोलिए, बोलिए, लेकिन वह