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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार का कल्याण हो ऐसा मन में बोलते रहना, आँख में पानी मत आने देना। आप तो जैन थीअरि (सिद्धांत) समझनेवाले आदमी हो। आप तो जानते हो कि किसी के मर जाने के बाद ऐसी भावना करनी चाहिए कि, 'उसकी आत्मा का कल्याण हो। हे कृपालुदेव, उसकी आत्मा का कल्याण करो।' उसके बदले हम मन में ढीले हों यह तो अच्छा नहीं। अपने ही स्वजन को दु:ख में डालें यह अपना काम नहीं। आप तो समझदार, विचारशील और संस्कारी लोग हो, इसलिए जब-जब मृत बेटा याद आये तब ऐसा बोलना कि, 'उसकी आत्मा का कल्याण हो। हे वीतराग भगवान, उसकी आत्मा का कल्याण करो।' ऐसे बोलते रहना। कृपालुदेव का नाम लोगे, दादा भगवान कहोगे तो भी आपका काम होगा। क्योंकि दादा भगवान और कृपालु देव आत्मस्वरूप में एक ही हैं। देह से अलग दिखते हैं। आँखों से अलग दिखते हैं, पर वास्तव में एक ही हैं। इसलिए महावीर भगवान का नाम दोगे, तो भी वही का वही है। उसकी आत्मा का कल्याण हो' इतनी ही भावना निरंतर हमें रखनी है। हम जिनके साथ निरंतर रहें, साथ में खाया-पीया, तो हम उनका किसी प्रकार कल्याण हो ऐसी भावना करते रहें। हम औरों के लिए अच्छी भावना करते हैं, तो फिर ये तो अपने खुद के लोग, उनके लिए क्यों भावना न करें?
हमने पुस्तकों में लिखा है कि तुझे 'कल्प' के अंत तक भटकना पड़ेगा। उसका नाम 'कल्पांत।' कल्पांत का अर्थ और किसी ने किया ही नहीं है न? तुमने आज पहली बार सुना न?
प्रश्नकर्ता : हाँ, पहली बार सुना।
दादाश्री : अतः इस 'कल्प' के अंत तक भटकना पड़ता है और लोग क्या करते हैं? बहुत कल्पांत करते हैं। अरे मुए, कल्पांत का अर्थ पूछ तो सही कि कल्पांत यानी क्या? कल्पांत तो कोई एकाध मनुष्य करता है। कल्पांत तो किसी का इकलौता बेटा हो, उसकी अचानक मृत्यु हो जाए उस स्थिति में कल्पांत हो सकता है।
प्रश्नकर्ता : दादाजी के कितने बच्चे थे?
माता-पिता और बच्चों का व्यवहार दादाश्री : एक लड़का और एक लड़की थी। १९२८ में पुत्र जन्मा तब मैंने मित्रों को पेड़े खिलाये थे। बाद में १९३१ में गुज़र गया। तब मैंने फिर सबको पेड़े खिलाये। पहले तो सबने ऐसा समझा कि दूसरा पुत्र जन्मा होगा, इसलिए पेड़े खिलाते होंगे। पेडे खिलाये तब तक मैंने स्पष्टीकरण नहीं दिया। खिलाने के बाद मैंने सबसे कहा, 'वे 'गेस्ट' (महेमान) आये थे न, वे गए!' वे सम्मानपूर्वक आये थे, तो हम उन्हें सम्मानपूर्वक विदा करें। इसलिए यह सम्मान किया। इस पर सभी मुझे डाँटने लगे। अरे, डाँटो मत, सम्मानपूर्वक विदा करना चाहिए।
बाद में 'बिटिया' आई थी। उसे भी सम्मानपूर्वक बुलाया और सम्मानपूर्वक विदा किया। इस दुनिया में जो आते हैं, वे सभी जाते हैं। उसके बाद तो घर में और कोई है नहीं, मैं और हीराबा (दादाजी की धर्मपत्नी) दो ही हैं।
(1958 में) ज्ञान होने से पहले हीराबा ने कहा, 'बच्चे मर गए और अब हमारे बच्चे नहीं हैं, क्या करेंगे हम? बुढ़ापे में हमारी सेवा कौन करेगा?' उन्हें उलझन हुई! उलझन नहीं होती? तब मैंने उन्हें समझाया, 'आज-कल के बच्चे आपका दम निकाल देंगे। बच्चे शराब पीकर आयें तब तुम्हें अच्छा लगेगा?' तब उन्होंने कहा, 'नहीं, वह तो अच्छा नहीं लगेगा।' तब मैंने कहा, ये आये थे वे गए, इसलिए मैंने पेड़े खिलाये।' उसके बाद जब उन्हें अनुभव हुआ, तब मुझसे कहने लगी, 'सभी के बच्चे बहुत दु:ख देते हैं।' तब मैंने कहा, 'हम तो पहले ही कह रहे थे, पर आप मानती नहीं थीं।'
जो पराया है, वह अपना होता है कभी? बिना वजह हाय-हाय करना। यह देह जो पराया है, उस देह के वे सगे-संबंधी! यह देह पराया और उस पराये की यह सारी सम्पत्ति। कभी अपनी होती होगी?
प्रश्नकर्ता : क्या करें? इकलौता बेटा है। वह हमसे अलग हो गया है।
दादाश्री : वह तो तीन हों, तो भी अलग हो जाते हैं और अगर वो अलग न हों तो हमें जाना पड़ेगा। फिर चाहे सब इकट्ठे रहें तो भी