________________
त्रिमंत्र
समर्पण अनादि काल से, माँ-बाप बच्चों का व्यवहार, राग-द्वेष के बंधन और ममता की मार । न कह सकें, न सह सकें, जाएँ तो जाएँ कहाँ? किस से पूछे, कौन बताये उपाय यहाँ? उलझे थे राम, दशरथ और श्रेणिक भी, श्रवण की मृत्यु पर, माँ-बाप की चीख निकली थी। शादी के बाद पूछे 'गुरु' पत्नी से बार-बार, इस त्रिकोण में क्या करूँ, बतलाओ तारणहार ! आज के बच्चे, उलझें माँ-बाप से, बड़ा अंतर पड़ा, 'जनरे शन गेप' से। मोक्ष का ध्येय है, करना पार संसार, कौन बने खिवैया? नैया है मझधार ! अब तक के ज्ञानियों ने, बतलाया बैराग, औलादवाले पड़े सोच में, कैसे बनें वीतराग? दिखलाया नहीं किसी ने, संसार सह मोक्षमार्ग, कलिकाल का आश्चर्य, 'दादा' ने दिया अक्रममार्ग! संसार में रहकर भी, हो सकते हैं वीतराग, खुद होकर दादा ने, प्रज्वलित किया चिराग। उस चिराग की रौशनी में मोक्ष पाएँ मुमुक्षु, सच्चा खोजी पाए यहाँ, निश्चय ही दिव्यचक्षु । उस रौशनी की किरणें, प्रकाशित हैं इस ग्रंथ में, माता-पिता बच्चों का व्यवहार सुलझे पंथ में। दीपक से दीपक जले, प्रत्येक के घट-घट में, जग को समर्पित यह ग्रंथ, प्राप्त करो अब झट से।