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१०. आदर्श व्यवहार
अंत में, व्यवहार आदर्श चाहिएगा आदर्श व्यवहार के बिना कोई मोक्ष में गया नहीं है। जैन व्यवहार, वह आदर्श व्यवहार नहीं है। वैष्णव व्यवहार, वह आदर्श व्यवहार नहीं है। मोक्ष में जाने के लिए आदर्श व्यवहार चाहिएगा।
आदर्श व्यवहार मतलब किसी जीव को किंचित् मात्र दु:ख नहीं हो, वह । घरवाले, बाहरवाले, अड़ोसी-पड़ोसी किसी को भी हमारे से दुःख नहीं हो वह आदर्श व्यवहार कहलाता है।
क्लेश रहित जीवन कर लेना, उसका नाम आदर्श व्यवहार।
हमारा आदर्श व्यवहार होता है। हमसे किसी को अड़चन हुई हो, ऐसा होता नहीं है। किसी के खाते में हमारी अड़चन जमा नहीं होती। हमें कोई अड़चन दे और हम भी अड़चन दें तो हम में और आपमें फर्क क्या? हम सरल होते हैं, सामनेवालों को आँटी में डालकर सरल रहते हैं। इसलिए सामनेवाला समझता है कि, 'दादा अभी कच्चे हैं।' हाँ, कच्चे होकर छट जाना बेहतर, परन्तु पक्के होकर उसकी जेल में जाना गलत, ऐसे तो किया जाता होगा? हमें हमारे भागीदार ने कहा कि, 'आप बहुत भोले हो।' तब मैंने कहा कि, 'मुझे भोला कहनेवाला ही भोला है।' तब उन्होंने कहा कि, 'आपको बहुत लोग छल जाते हैं।' तब मैंने कहा कि, 'हम जान-बूझकर छले जाते हैं।'
हमारा संपूर्ण आदर्श व्यवहार होता है। जिनके व्यवहार में कोई भी कमी होगी, वह मोक्ष के लिए पूरा लायक हुआ नहीं कहा जाएगा।
प्रश्नकर्ता : ज्ञानी के व्यवहार में दो व्यक्तियों के बीच भेद होता है?
दादाश्री : उनकी दृष्टि में भेद ही नहीं होता, वीतरागता होती है। उनके व्यवहार में भेद होता है। एक मिलमालिक और उसका ड्राइवर यहाँ आए, तो सेठ को सामने बिठाऊँ और डाइवर को मेरे पास बिठाऊँ. इससे सेठ का पारा उतर जाएगा! और प्रधानमंत्री आएँ तो मैं खड़ा होकर उनका स्वागत करूँ और उन्हें बिठाऊँ, उनका व्यवहार नहीं चूकता। उन्हें तो विनयपूर्वक ऊपर बिठाऊँ, और उन्हें यदि मेरे पास से ज्ञान ग्रहण करना हो, तो मेरे सामने नीचे बिठाऊँ, नहीं तो ऊँचे बिठाऊँ। लोकमान्य को व्यवहार कहा है और मोक्षमान्य को निश्चय कहा है। इसलिए लोकमान्य व्यवहार को उसी रूप में एक्सेप्ट करना पड़ता है। हम उठकर उन्हें नहीं बुलाएँ तो उनको दु:ख होगा, उसकी जोखिमदारी हमारी कहलाएगी।
प्रश्नकर्ता : बड़े हों उन्हें पूज्य मानना चाहिए?
दादाश्री : बड़े मतलब उम्र में बड़े ऐसा नहीं, फिर भी माँजी बड़े हों तो उनका विनय रखना चाहिए और ज्ञानवृद्ध हुए हों, वे पूज्य माने जाते हैं।
जैन व्यवहार का अभिनिवेश करने जैसा नहीं है। वैष्णव व्यवहार का अभिनिवेश करने जैसा नहीं है। सारा अभिनिवेश व्यवहार है। भगवान महावीर का आदर्श व्यवहार होता था। आदर्श व्यवहार हो मतलब दुश्मन को भी अखरता नहीं है। आदर्श व्यवहार मतलब मोक्ष जाने की निशानी। जैन या वैष्णव गच्छ में से मोक्ष नहीं है। हमारी आज्ञाएँ आपको आदर्श व्यवहार की तरफ ले जाती हैं। वे संपूर्ण समाधि में रखें वैसी हैं। आधिव्याधि-उपाधी में समाधि रहे ऐसा है। बाहर सारा 'रिलेटिव' व्यवहार है और यह तो 'साइन्स' है। साइन्स मतलब रियल!
आदर्श व्यवहार से अपने से किसी को दुःख नहीं होता, अपने से किसी को दुःख नहीं हो उतना ही देखना है। फिर भी अपने से किसी को दुःख हो जाए तो तुरन्त ही प्रतिक्रमण कर लेना। हमसे कुछ उनकी भाषा में नहीं जाया जा सकता। यह जो व्यवहार में पैसों के लेन-देन आदि व्यवहार है, वह तो सामान्य रिवाज है, उसे हम व्यवहार नहीं कहते, किसी को दु:ख नहीं होना चाहिए, वह देखना है, और दुःख हुआ हो तो प्रतिक्रमण