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________________ ५. समझ से सोहे गृहसंसार संसार निभाने के संस्कार-कहाँ? मनुष्य के अलावा दूसरा कोई पतिपना नहीं करता। अरे, आजकल तो डायवॉर्स लेते हैं न? वकील से कहते हैं कि, 'तुझे हज़ार, दो हजार रुपये दूंगा, मुझे डायवॉर्स दिलवा दे।' तब वकील कहेगा कि 'हाँ, दिलवा दूंगा।' अरे! तू ले ले न डायवॉर्स, दूसरों को क्या दिलवाने निकला है? पहले के समय की एक बुढ़िया की बात है। वे चाचाजी की तेरही कर रही थीं। 'तेरे चाचा को यह भाता था, वह भाता था।' ऐसा कर-करके चार पाई पर वस्तुएँ रखती जाती थी। तब मैंने कहा, 'चाची! आप तो चाचा के साथ रोज लड़ती थी। चाचा भी आपको बहुत बार मारते थे। तब यह क्या?' तब चाची ने कहा, 'लेकिन तेरे चाचा जैसे पति मुझे फिर नहीं मिलेंगे।' ये अपने हिन्दुस्तान के संस्कार ! पति कौन कहलाता है? संसार को निभाए उसे। पत्नी कौन कहलाती है? संसार को निभाए उसे। संसार को तोड़ डाले उसे पत्नी या पति कैसे कहा जाए? उसने तो अपने गणधर्म ही खो दिए. ऐसा कहलाएगा न? वाइफ पर गुस्सा आए तो यह मटकी थोडे ही फेंक दोगे? कुछ तो कप-रकाबी फेंक देते हैं और फिर नये ले आते हैं! अरे, नये लाने थे तो फोड़े किसलिए? क्रोध में अंध बन जाता है और हिताहित का भान भी खो देता है। ये लोग तो पति बन बैठे हैं। पति तो ऐसा होना चाहिए कि पत्नी सारा दिन पति का मुँह देखती रहे। प्रश्नकर्ता : शादी से पहले बहुत देखते हैं। दादाश्री : वह तो जाल डालती है। मछली ऐसा समझती है कि यह बहुत अच्छे दयालु व्यक्ति है, इसलिए मेरा काम हो गया। पर एक बार खाकर तो देख, काँटा फँस जाएगा। यह तो फँसाववाला है सब। इसमें प्रेम जैसा कहाँ रहा? घरवालों के साथ नफा हुआ कब कहलाता है कि घरवालों को अपने १२२ क्लेश रहित जीवन ऊपर प्रेम आए, अपने बिना अच्छा नहीं लगे और कब आएँगे, कब आएँगे? ऐसा रहा करे। लोग शादी करते हैं पर प्रेम नहीं है। यह तो मात्र विषयासक्ति है। प्रेम हो तो चाहे जितना एक-दूसरे में विरोधाभास आए, फिर भी प्रेम नहीं जाता। जहाँ प्रेम नहीं होता, वह आसक्ति कहलाती है। आसक्ति मतलब संडास! प्रेम तो पहले इतना सारा था कि पति परदेश गया हो और वह वापिस न आए तो सारी ज़िन्दगी उसका चित्त उसीमें ही रहता, दूसरा कोई याद ही नहीं आता था। आज तो दो साल पति न आए तो दुसरा पति कर लेती है, इसे प्रेम कहेंगे? यह तो संडास है। जैसे संडास बदलते हैं वैसे! जो गलन है, वह संडास कहलाता है। प्रेम में तो अर्पणता होती है। प्रेम मतलब लगनी लगे वह और वह सारा दिन याद आया करे। शादी दो रूप में परिणमित होती है, कभी आबादी में जाती है तो कभी बरबादी में जाती है। प्रेम बहुत उभरे तब वापिस बैठ जाता है। जो उभरे वह आसक्ति है। इसीलिए जहाँ उभरे उससे दूर रहना। लगनी तो आंतरिक होनी चाहिए। बाहर का बक्सा बिगड़ जाए, सड़ जाए फिर भी प्रेम उतने का उतना ही रहे। यह तो हाथ जल गया हो और हम कहें कि, 'ज़रा धुलवा दो।' तो पति कहे कि 'ना, मुझसे नहीं देखा जाता।' अरे, उस दिन तो हाथ सहलाया करता था, और आज क्यों ऐसा? यह घृणा कैसे चले? जहाँ प्रेम है वहाँ घृणा नहीं, और जहाँ घणा है वहाँ प्रेम नहीं। संसारी प्रेम भी ऐसा होना चाहिए कि जो एकदम कम न हो जाए और एकदम बढ़ न जाए। नोर्मेलिटी में होना चाहिए। ज्ञानी का प्रेम तो कभी घट-बढ़ नहीं होता है। वह प्रेम तो अलग ही होता है। उसे परमात्मप्रेम कहा जाता है। नोर्मेलिटी, सीखने जैसी प्रश्नकर्ता : व्यवहार में 'नोर्मेलिटी' की पहचान क्या है? दादाश्री : सब कहते हों कि, 'तू देर से उठती है, देर से उठती है', तो हम नहीं समझ जाएँ कि यह नोर्मेलिटी खो गई है? रात को ढाई बजे उठकर तू घूमने लगे तो सब नहीं कहेंगे कि 'इतनी जल्दी क्यों उठते
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
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