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________________ ५. समझ से सोहे गृहसंसार ११९ हो कि, 'पत्नी मुझे ऐसा क्यों करती है?' पत्नी को ऐसा होता है कि, 'पति के साथ मुझसे ऐसा क्यों होता है?' उसे भी दु:ख होता है, पर क्या हो? फिर मैंने उनसे पूछा कि 'पत्नी आपको ढूँढ लाई थी या आप पत्नी को हँढ लाए थे?' तब वह कहता है कि 'मैं ढूँढ लाया था।' तब उसका क्या दोष बेचारी का? ले आने के बाद उल्टा निकले, उसमें वह क्या करे? कहाँ जाए फिर? कछ पत्नियाँ तो पति को मारती भी है। पतिव्रता स्त्री को तो ऐसा सुनने से भी पाप लगता है कि ऐसे पत्नी पति को मारती प्रश्नकर्ता : जो पुरुष मार खाए तो वह स्त्री जैसा कहलाएगा न? दादाश्री : ऐसा है, मार खाना कोई पुरुष की कमजोरी नहीं है। पर उसके यह ऋणानुबंध ऐसे होते हैं, पत्नी दुःख देने के लिए ही आई होती है वह हिसाब चुकाती ही है। पगला अहंकर, तो लड़ाई-झगड़ा करवाए संसार में लड़ाई-झगड़े की बात ही नहीं करनी, वह तो रोग कहलाता है। लड़ना वह अहंकार है, खुला अहंकार है, वह पागल अहंकार कहलाता है। मन में ऐसा मानता है कि 'मेरे बिना चलेगा नहीं।' किसी को डाँटने में तो अपने को उल्टा बोझा लगता है. निरा सिर पक जाता है। लडने का किसी को शौक होता होगा? ___ घर में सामनेवाला पछे, सलाह माँगे तो ही जवाब देना चाहिए। बिना पूछे सलाह देने बैठ जाए उसे भगवान ने अहंकार कहा है। पति पूछे कि 'ये प्याले कहाँ रखने हैं?' तो पत्नी जवाब देती है कि 'फलाँ जगह पर रख दो।' तो हम वहाँ रख दें। उसके बदले में कहें कि 'तुझे अक्कल नहीं, कहाँ रखने को तू कहती है?' उस पर पत्नी कहे कि 'अपनी अक्कल से रखो।' इसका कहाँ पार आए? यह संयोगों का टकराव है। इसलिए लटू खाते समय, उठते समय टकराया ही करते हैं। फिर लटू टकराते हैं, छिल जाते हैं और खून निकलता है। यह तो मानसिक खून निकलता है न! वो खून निकलता हो तब तो अच्छा, १२० क्लेश रहित जीवन पट्टी लगाए तो रुक जाता है। इस मानसिक घाव पर तो पट्टियाँ भी नहीं लगतीं कोई। ऐसी वाणी बोलने जैसी नहीं है घर में किसी से कुछ कहना, वह सबसे बड़ा अहंकार का रोग है। अपना-अपना हिसाब लेकर ही आए हैं सभी! हर एक की अपनी दाढी उगती है, हमें किसी से कहना नहीं पड़ता कि दाढी क्यों उगाता नहीं? वह तो उसे उगती ही है। सब सबकी आँखों से देखते हैं, सब सबके कानों से सुनते हैं। यह दखल करने की क्या ज़रूरत है? एक अक्षर भी बोलना मत। इसलिए हम यह 'व्यवस्थित' का ज्ञान देते हैं। अव्यवस्थित कभी भी होता ही नहीं है। अव्यवस्थित दिखता है वह भी 'व्यवस्थित' ही है। इसलिए बात ही समझनी है। कभी पतंग गोता खाए तब डोरी खींच लेनी है। डोरी अब अपने हाथ में है। जिसके हाथ में डोरी नहीं है उसकी पतंग गोता खाए, तो क्या करे? डोरी हाथ में है नहीं और शोर मचाता है कि मेरी पतंग ने गोता खाया। घर में एक अक्षर भी बोलना बंद कर दो। 'ज्ञानी' के अलावा किसी से शब्द बोला नहीं जा सकता। क्योंकि 'ज्ञानी' की वाणी कैसी होती है? परेच्छानुसार होती है, दूसरों की इच्छा के आधार पर वे बोलते हैं। उन्हें किसलिए बोलना पड़ता है? उनकी वाणी तो दूसरों की इच्छा पूर्ण होने के लिए निकलती है। और दूसरे तो बोलें उससे पहले तो सबका अदंर से हिल जाता है, भयंकर पाप लगता है, ज़रा-सा भी बोलना नहीं चाहिए। जरा-सा भी बोले तो वह कच-कच कहलाता है। बोल तो किसे कहते हैं कि सुनते रहने का मन हो, डाँटें तब भी वह सुनना अच्छा लगे। ये तो जरा बोले, उससे पहले ही बच्चे कहते हैं कि 'चाचा अब कच-कच करनी रहने दो। बिना काम के दखल कर रहे हो।' डाँटा हुआ कब काम का? पूर्वग्रह नहीं हो तो। पूर्वग्रह मतलब मन में याद होता ही है कि कल इसने ऐसा किया था और ऐसे झगड़ा था, इसलिए यह ऐसा ही है। घर में झगड़े उसे भगवान ने मूर्ख कहा है। किसी को दुःख दें, तो भी नर्क जाने की निशानी है।
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
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