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५. समझ से सोहे गृहसंसार
संस्कार बिगड़ते हैं। बच्चों के संस्कार नहीं बिगड़े इसलिए दोनों को समझकर समाधान लाना चाहिए। यह शंका निकाले कौन? अपना 'ज्ञान' तो संपूर्ण नि:शंक बनाए ऐसा है। आत्मा की अनंत शक्तियाँ हैं।
ऐसी वाणी को निबाह लें यह तिपाई लगे तो हम उसे गुनहगार नहीं मानते, पर दूसरा कोई मारे तो उसे गुनहगार मानते हैं। कुत्ता हमें काटे नहीं और खाली भौंकता रहे तो हम उसे चला लेते हैं न! यदि मनुष्य हाथ नहीं उठाता हो और केवल भौंके तो निभा लेना नहीं चाहिए? भौंकना यानी टु स्पिक। बार्क यानी भौंकना। 'यह पत्नी बहुत भौंकती रहती है' ऐसा बोलते हैं न? ये वकील भी कोर्ट में भौंकते नहीं? वह जज दोनों को भौंकते हुए देखता रहता है। ये वकील निर्लेपता से भौंकते हैं न? कोर्ट में तो आमने-सामने 'आप ऐसे हो, आप वैसे हो, आप हमारे असील पर ऐसे झूठा आरोप लगाते हो' भौंकते हैं। हमें ऐसा लगता है कि ये दोनों बाहर निकलकर मारामारी करेंगे, परन्तु बाहर निकलने के बाद देखें तो दोनों साथ में बैठकर आराम से चाय पी रहे होते हैं!
प्रश्नकर्ता : वह ड्रामेटिक लड़ना कहलाए न?
दादाश्री : ना। वह तोतामस्ती कहलाती है। ड्रामेटिक तो 'ज्ञानी पुरुष' के अलावा किसी को आता नहीं है। तोते मस्ती करते हैं तो हम घबरा जाते हैं कि ये अभी मर जाएंगे, लेकिन नहीं मरते। वे तो यों ही चोंच मारा करते हैं। किसी को लगे नहीं ऐसे चोंच मारते हैं।
हम वाणी को रिकार्ड कहते हैं न? रिकार्ड बजा करती हो कि चंदू में अक्कल नहीं, चंदू में अक्कल नहीं। तब अपने को भी गाने लगना कि चंदू में अक्कल नहीं।
ममता के पेच खोलें किस तरह? पूरे दिन काम करते-करते भी पति के प्रतिक्रमण करते रहना चाहिए। एक दिन में छह महीने का बैर धुल जाएगा और आधा दिन हो
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क्लेश रहित जीवन तो मानो न तीन महीने तो कम हो जाएँगे। शादी से पहले पति के साथ ममता थी? ना। तो ममता कब से बंधी? शादी के समय मंडप में आमनेसामने बैठे, तब उसने निश्चित किया कि ये मेरे पति आए। जरा मोटे हैं,
और काले हैं। इसके बाद उसने भी निश्चित किया कि ये मेरी पत्नी आई। तब से मेरा-मेरा' के जो पेच घुमाए, वे चक्कर घूमते ही रहते हैं। पंद्रह वर्षों की यह फिल्म है, उसे 'नहीं हैं मेरे, नहीं हैं मेरे' करेगा तब वे पेच खुलेंगे और ममता टूटेगी। यह तो शादी हुई तब से अभिप्राय खड़े हुए, प्रेजुडिस खड़ा हुआ कि 'ये ऐसे हैं, वेसे हैं।' उससे पहले कुछ था? अब तो हमें मन में निश्चित करना है कि, 'जो है, वो यही है।' और हम खुद पसंद करके लाए हैं। अब क्या पति बदला जा सकता है?
सभी जगह फँसाव! कहाँ जाएँ? जिसका रास्ता नहीं उसे क्या कहा जाए? जिसका रास्ता नहीं हो उसके पीछे रोना-धोना नहीं करते। यह अनिवार्य जगत् है। घर में पत्नी का क्लेशवाला स्वभाव पसंद नहीं हो, बड़े भाई का स्वभाव पसंद नहीं हो, इस तरफ पिताजी का स्वभाव पसंद नहीं हो, ऐसे टोले में मनुष्य फँस जाए तब भी रहना पड़ता है। कहाँ जाए पर? इस फँसाव से चिढ़ मचती है, पर जाए कहा? चारों तरफ बाड़ है। समाज की बाड़ होती है। समाज मुझे क्या कहेगा?' सरकार की भी बाडें होती हैं। यदि परेशान होकर जलसमाधि लेने जुहू के किनारे जाए तो पुलिसवाले पकड़ें। अरे भाई, मुझे आत्महत्या करने दे न चैन से, मरने दे न चैन से।' तब वह कहे, 'ना, मरने भी नहीं दिया जा सकता। यहाँ तो आत्महत्या करने के प्रयास का गुनाह किया इसलिए तुझे जेल में डालते हैं।' मरने भी नहीं देते और जीने भी नहीं देते, इसका नाम संसार! इसलिए रहो न चैन से... और सिगरेट पीकर सो नहीं जाएँ? ऐसा यह अनिवार्यतावाला जगत्! मरने भी नहीं दे और जीने भी नहीं दे।
इसलिए जैसे-तैसे करके एडजस्ट होकर टाइम बिता देना चाहिए ताकि उधार चुक जाए। किसी का पच्चीस वर्ष का, किसी का पंद्रह वर्ष का, किसी का तीस वर्ष का, जबरदस्ती हमें उधार पूरा करना पड़ता है।