SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. समझ से सोहे गृहसंसार प्राप्त कर लेना ताकि सभी बैर छूट जाएँ। इसी भव में ही सब बैर छोड़ देने हैं, हम आपको रास्ता दिखाएँगे। संसार में लोग ऊबकर मौत किसलिए ढूँढते हैं? ये उपाधियाँ पसंद नहीं हैं, इसलिए। बात तो समझनी पड़ेगी न? कब तक मुश्किल में पड़े रहोगे? यह तो कीड़े-मकोडों जैसा जीवन हो गया है। निरी तरफड़ाहट, तरफड़ाहट और तरफडाहट। मनुष्य में आने के बाद फिर तरफड़ाट क्यों हो? जो ब्रह्मांड का मालिक कहलाए उसकी यह दशा! सारा जगत् तरफड़ाहट में है और तरफड़ाहट में न हो तो मूर्छा में होता है। इन दोनों के अलावा बाहर जगत् नहीं है। और त् ज्ञानघन आत्मा हो गया तो दखल गया। जैसा अभिप्राय वैसा असर ११२ क्लेश रहित जीवन आपको अभिप्राय वापिस बदलना नहीं हो तो अलग बात है। अभिप्राय अपना बदले नहीं तो अपना किया हुआ खरा है। वापिस यदि वाइफ के साथ बैठनेवाले ही न हों तो झगड़े वह ठीक है। पर यह तो कल वापिस साथ में बैठकर भोजन करनेवाले हो, तो फिर कल नाटक किया उसका क्या? वह विचार करना पड़ेगा न? ये लोग तिल सेक-सेककर बोते हैं, इसलिए सारी मेहनत बेकार जाती है। झगड़े हो रहे हों तब लक्ष्य में होना चाहिए कि ये कर्म नाच नचा रहे हैं। फिर उस 'नाच' का ज्ञानपूर्वक हल लाना चाहिए। प्रश्नकर्ता : दादा, यह तो झगड़ा करनेवाले दोनों व्यक्तियों को समझना चाहिए न? प्रश्नकर्ता : ढोल बजता हो तो, चिढनेवाले को चिढ़ क्यों होती दादाश्री : वह तो माना कि 'पसंद नहीं है इसलिए। यह ढोल बज रहा हो तो हमें कहना कि 'अहोहो! ढोल बहत अच्छा बज रहा है!' इसलिए फिर अंदर कुछ नहीं होगा। यह खराब है' ऐसा अभिप्राय दिया तो अंदर सारी मशीनरी बिगड़ जाती है। अपने को तो नाटकीय भाषा में कहना है कि 'बहुत अच्छा ढोल बजाया।' इससे अंदर छूता नहीं। यह 'ज्ञान' मिला है इसलिए सब 'पेमेन्ट' किया जा सकता है। विकट संयोगों में तो ज्ञान बहुत हितकारी है, ज्ञान का 'टेस्टिंग' हो जाता है। ज्ञान की रोज 'प्रेक्टिस' करने जाएँ तो कुछ 'टेस्टिंग' नहीं होता। वह तो एकबार विकट संयोग आ जाए तो सब 'टेस्टेड' हो जाता है। दादाश्री : ना, यह तो 'सब-सबकी सँभालो।' हम लोग सुधरें तो सामनेलावा सुधरता है। यह तो विचारणा है, और एक घड़ी बाद में साथ बैठना है तो कलह किसलिए? शादी की है तो कलह किसलिए? आप बीते कल को भुला चुके हों और हमें तो सारी की सारी वस्तु 'ज्ञान' में हाजिर होती हैं। जब कि यह तो सद्विचारणा है और 'ज्ञान' न हो उसे भी काम आए। यह अज्ञान से मानता है कि वह चढ़ बैठेगी। कोई हमें पूछे तो हम कहें कि तू भी लट्ट और वह भी लट्ट तो किस तरह चढ़ बैठेगी? वह कोई उसके बस में है? वह तो 'व्यवस्थित' के बस में है और वाइफ चढ़कर कहाँ ऊपर बैठनेवाली है? आप जरा झुक जाओ तो उस बिचारी के मन में भी अरमान पूरा होगा कि अब पति मेरे काबू में है। यानी संतोष हो उसे। शंका, वह भी लड़ाई-झगड़े का कारण घर में अधिकतर लड़ाई-झगड़े अभी शंका से खड़े हो जाते हैं। यह कैसा है कि शंका से स्पंदन उठते हैं और स्पंदनों के विस्फोट होते हैं। और यदि नि:शंक हो जाए न तो विस्फोट अपने आप शांत हो जाए। पतिपत्नी दोनों शंकावाले हो जाएँ तो फिर विस्फोट किस तरह शांत हों? एक को तो नि:शंक होना ही पड़ेगा। माँ-बाप के लड़ाई-झगड़ों से बच्चों के यह सद्विचारणा, कितनी अच्छी हम तो इतना जानते हैं कि झगड़ने के बाद वाइफ के साथ व्यवहार ही नहीं रखना हो तो अलग बात है। परन्तु वापिस बोलना है तो फिर बीच की सारी ही भाषा गलत है। हमें तो यह लक्ष्य में ही होता है कि दो घंटे बाद वापिस बोलना है, इसलिए उसके साथ कच-कच नहीं करें। यह तो,
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy