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________________ ५. समझ से सोहे गृहसंसार ११५ नहीं पसंद हो तब भी उसी के उसी कमरे में साथ में रहना पड़ता है। यहाँ बिस्तर मेमसाहब का और यहाँ बिस्तर भाईसाहब का। मुँह टेढ़े फिराकर सो जाएँ, तब भी विचार में तो मेमसाहब को भाईसाहब ही आते हैं न? छुटकारा ही नहीं है। यह जगत् ही ऐसा है। उसमें भी हमें वे अकेले पसंद नहीं हैं ऐसा नहीं है, उन्हें भी वापिस हम पसंद नहीं होते हैं ! इसलिए इसमें मज़े लेने जैसा नहीं है। इस संसार के झंझट में विचारशील को पुसाता नहीं है। जो विचारशील नहीं है, उसे तो यह झंझट है उसका भी पता नहीं चलता है। वह मोटा खाता कहलाता है। जैसे कि कान से बहरा मनुष्य हो उसके सामने उसकी चाहे जितनी गुप्त बातें करें, उससे क्या परेशानी है? ऐसा अंदर भी बहरा होता है सब इसलिए उसे यह जंजाल पुसाता है, बाकी जगत् में मजे ढूँढने जाता है तो इसमें तो भाई कोई मज़ा होता होगा? पोलम्पोल कब तक ढंकनी? यह तो सारा बनावटी जगत् है! और घर में कलह करके, रोकर और वापिस मुँह धोकर बाहर निकलता है!! हम पूछे, 'कैसे हो चंदूभाई?' तब वह कहे, 'बहुत अच्छा है।' अरे, तेरी आँख में तो पानी है, मुँह धोकर आया है। पर आँख तो लाल दिखती है न? इसके बदले तो कह डाल न कि मेरे वहाँ यह दु:ख है। ये तो सभी ऐसा समझते हैं कि दुसरे के वहाँ दुःख नहीं है। मेरे यहाँ ही दुःख है। ना, अरे सब ही रोए हैं। हरएक घर से रोकर मुँह धोकर बाहर निकले हैं। यह भी एक आश्चर्य है ! मुँह धोकर किसलिए निकलते हो? धोए बगैर निकलो तो लोगों को पता चले कि इस संसार में कितना सुख है ! मैं रोता हुआ बाहर निकलूँ, तू रोता हुआ बाहर निकले, सभी रोते हुए बाहर निकलें तब फिर पता चल जाए कि यह जगत् पोल ही है। छोटी उम्र में पिताजी मर गए तो शमशान में रोतेरोते गए! वापिस आकर नहाए, यानी कुछ भी नहीं!! नहाने का इन लोगों ने सिखलाया। नहला-धुलाकर चोखा कर देते हैं ! ऐसा यह जगत् है! सभी मुँह धोकर बाहर निकले हुए हैं, सब पक्के ठग। उसके बदले तो खुला किया होता तो अच्छा। क्लेश रहित जीवन हमारे 'महात्माओं' में से कुछ महात्मा खुला कर देते हैं कि 'दादा, आज तो पत्नी ने मुझे मारा।' इतनी अधिक सरलता किस कारण से आई? अपने ज्ञान के कारण आई। 'दादा' को तो सारी ही बात कही जा सकती हैं। ऐसी सरलता आई, वहीं से ही मोक्ष जाने की निशानी हई। ऐसी सरलता होती नहीं है न? मोक्ष में जाने के लिए सरल ही होना है। यह बाहर तो पति छीट छीट किया करता है। पत्नी की मार खद खा रहा हो, फिर भी बाहर कहता है कि, 'ना, ना, वह तो मेरी बेटी को मार रही थी!' अरे, मैंने खुद तुझे मार खाते हुए देखा था न? उसका क्या अर्थ? मीनिंगलेस। इससे तो सच सच कह दे न! आत्मा को कहाँ मारने का है? हम आत्मा हैं, मारेंगे तो देह को मारेंगे। अपने आत्मा का तो कोई अपमान ही नहीं कर सकता। क्योंकि 'हमें' वह देखे तो अपमान करे न? देखे बिना किस तरह अपमान करे? देह को तो यह भैंस नहीं मार जाती? वहाँ नहीं कहते कि इस भैंस ने मुझे मारा? इस भैंस से तो घर की पत्नी बड़ी नहीं है? उसमें क्या? किस की आबरू जानेवाली है? आबरू है ही कहाँ? इस जगत् में कितने जीव रहते हैं? कोई कपड़े पहनता है? आबरूवाले कपड़े पहनते ही नहीं। जिसकी आबरू नहीं है, वे कपड़े पहनकर आबरू बँका करते हैं, जहाँ से फटे वहाँ सिलते रहते हैं। कोई देख जाएगा, कोई देख जाएगा! अरे, सिल-सिलकर कितने दिन तक आबरू रखेगा? सिली हुई आबरू रहती नहीं है। आबरू तो जहाँ नीति है, प्रमाणिकता है, दया है, लगाव है, ऑब्लाइजिंग नेचर है, वहाँ है। ... ऐसे फँसाव बढ़ता गया यह रोटी और सब्जी के लिए शादी करी। पति समझे कि मैं कमाकर लाऊँ, पर यह खाना कौन बनाकर देगा? पत्नी समझती है कि मैं रोटी बनाती तो हूँ पर कमाकर कौन देगा? ऐसा करके दोनों ने शादी की. और सहकारी मंडली बनाई। फिर बच्चे भी होंगे ही। एक लौकी का बीज बोया, फिर लौकी लगती रहती है कि नहीं लगती रहती? बेल के पत्ते-पत्ते पर लौकी लगती है। ऐसा ये मनुष्य भी लौकी की तरह उगते रहते हैं। लौकी की बेल ऐसा नहीं बोलती कि ये मेरी लौकियाँ हैं। ये मनुष्य अकेले ही
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
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