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५. समझ से सोहे गृहसंसार पर घर में पंद्रह-पंद्रह दिन से केस पेन्डिंग पड़ा होता है। पत्नी के साथ अबोला होता है! तब अपने मैजिस्ट्रेट साहब से पूछे कि 'क्यों साहब?' तब साहब कहते हैं कि पत्नी बहुत खराब है, बिलकल जंगली है। अब पत्नी से पूछे, 'क्यों, साहब तो बहुत अच्छे आदमी हैं न?' तब पत्नी कहेगी, 'जाने दो न नाम, रोटन (सड़ा हुआ) आदमी है।' अब ऐसा सुने तब से ही नहीं समझ जाएँ कि यह सारा पोलम्पोल है जगत्? इसमें करेक्टनेस जैसा कुछ भी नहीं है।
वाईफ यदि सब्जी महँगे दाम की लाई हो तो सब्जी देखकर मूर्ख चिल्लाता है, 'इतने महंगे भाव की सब्जी तो ली जाती होगी? तब पत्नी कहेगी, 'यह आपने मुझ पर अटैक किया।' ऐसा कहकर पत्नी डबल अटैक करती है। अब उसका पार कैसे आए? वाइफ यदि महँगे भाव की सब्जी ले आई हो तो हम कहें, 'बहुत अच्छा किया, मेरे धन्यभाग!', बाकी मेरे जैसे लोभी से इतना महँगा नहीं लाया जाता।'
क्लेश रहित जीवन है! बिना सर्टिफिकेट के पति होने गया, पति होने की योग्यता का सर्टिफिकेट होना चाहिए, तभी बाप होने का अधिकार है। यह तो बिना अधिकार के बाप बन गए और वापिस दादा भी बनते हैं ! इसका कब पार आएगा? कुछ समझना चाहिए।
रिलेटिव में तो जोड़ना यह तो 'रिलेटिव' सगाईयाँ हैं। यदि 'रियल' सगाई हो न, तब तो हमारा जिद पर अड़ जाना काम का कि तू सुधरे नहीं तब तक मैं अपनी जिद पर अड़ा रहूँगा। पर यह तो रिलेटिव! रिलेटिव मतलब एक घंटा यदि पत्नी के साथ जमकर लड़ाई हो जाए तो दोनों को डायवोर्स का विचार आ जाता है, फिर उस विचारबीज का पेड बनता है। हमें यदि वाइफ की ज़रूरत हो तो वह फाड़ती रहे तो हमें सिलते जाना है। तभी यह रिलेटिव संबंध टिकेगा, नहीं तो टूट जाएगा। बाप के साथ भी रिलेटिव संबंध है। लोग तो रियल सगाई मानकर बाप के साथ ज़िद पर अड़ जाते हैं। वह सुधरे नहीं, तब तक जिद पर अड़ना? घनचक्कर, ऐसे करते-करते सुधरते हुए तो बूढ़ा मर जाएगा। उससे तो उसकी सेवा कर और बेचारा बैर बाँधकर जाए उससे अच्छा तो उसे शांति से मरने दे न! उसके सींग उसे भारी। किसी के बीस-बीस फुट लंबे सींग होते हैं। उसमें हमें क्या भार? जिसके हों उसे भार।
हमें अपना फ़र्ज़ निभाना है इसीलिए ज़िद पर मत अड़ना, तुरंत बात का हल ला दो। उसके बावजूद भी सामनेवाला व्यक्ति बहुत लड़े तो कहें कि मैं तो पहले से ही बेवकूफ हूँ, मुझे तो ऐसा आता ही नहीं है। ऐसा कह दिया इससे वह आपको छोड़ देगा। चाहे जिस रास्ते छूट जाओ और मन में ऐसा मत मान बैठना कि सब चढ़ बैठेंगे तो क्या करूँगा? वे क्या चढ़ बैठेंगे? चढ़ बैठने की किसी के पास शक्ति ही नहीं है। ये सब कर्म के उदय से लट्ट नाच रहे हैं। इसलिए जैसे-तैसे करके आज का शक्रवार क्लेश बिना का निकाल डालो, कल की बात कल देख लेंगे। दूसरे दिन कोई पटाखा फूटने का हुआ तो चाहे जिस तरह से उसे ढंक देना, फिर देख लेंगे। ऐसे दिन बिताने चाहिए।
हम एक व्यक्ति के वहाँ ठहरे थे। तब उनकी पत्नी दर से पटककर चाय रख गई। मैं समझ गया कि इन दोनों के बीच कोई अँझट हई है। मैंने उन बहनजी को बुलाकर पूछा, 'पटका क्यों?' तो वे कहती है कि ना, ऐसा कुछ नहीं है। मैंने उसे कहा, 'तेरे पेट में क्या बात है यह मैं समझ गया हूँ। मेरे पास छुपाती है? तूने पटककर दिया तो तेरा पति भी मन में समझ गया कि क्या हक़ीक़त है। सिर्फ यह कपट छोड़ दे चुपचाप, यदि सुखी होना हो तो।'
पुरुष तो भोले होते हैं और ये स्त्रियाँ तो चालीस वर्ष पहले भी यदि पाँच-पच्चीस गालियाँ दी हों, तो वे कहकर बताती हैं कि आप उस दिन ऐसा कह रहे थे। इसीलिए सँभालकर स्त्री के साथ काम निकाल लेने जैसा है। स्त्री तो अपने पास काम निकलवा लेगी। पर हमें नहीं आता।
स्त्री साड़ी लाने को कहे डेढ़ सौ रुपये की, तो हम पच्चीस अधिक दें। तब छह महीनों तक तो चलेगा ! समझना पड़ेगा। लाइफ मतलब तो कला है! यह तो जीवन जीने की कला नहीं हो और पत्नी लाने जाता