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________________ ५. समझ से सोहे गृहसंसार बहुत तो सीखो लोगों के पास से! तब सेठलोग मुझे कहते हैं कि हममें कॉमनसेन्स तो है। तब मैंने कहा, 'कॉमनसेन्स होता तो ऐसा होता ही नहीं। तु तो मुर्ख है।' सेठ ने पूछा, 'कॉमनसेन्स मतलब क्या?' मैंने कहा, 'कॉमनसेन्स यानी एवरीव्हेर एप्लिकेबल-थ्योरिटिकली एज वेल एज प्रेक्टिकली।' चाहे जैसा ताला हो, जंग लगा हुआ हो या चाहे जैसा हो पर चाबी डालें कि तुरन्त खुल जाए उसका नाम कॉमनसेन्स। आपके तो ताले खुलते नहीं हैं, झगड़े करते हो और ताले तोड़ते हो! अरे, ऊपर बड़ा हथौड़ा मारते हो! मतभेद आपमें पड़ता है? मतभेद मतलब क्या? ताला खोलना नहीं आया, वैसा कॉमनसेन्स कहाँ से लाए? मेरा कहने का यह है कि पूरी तीन सौ साठ डिग्री का कॉमनसेन्स नहीं होता परन्तु चालीस डिग्री, पचास डिग्री का तो आता है न? वैसा ध्यान में रखा हो तो? एक शुभ विचारणा पर चढ़ा हो तो उसे वह विचारणा याद आती है और वह जागृत हो जाता है। शुभ विचारणा के बीज पड़े, फिर वह विचारणा शुरू हो जाती है। पर यह तो सेठ सारे दिन लक्ष्मी के और लक्ष्मी के विचारों में ही घूमता रहता है! इसलिए मुझे सेठ से कहना पड़ता है, 'सेठ आप लक्ष्मी के पीछे पड़े हो? घर पूरा तहस-नहस हो गया है। बेटियाँ मोटर लेकर इधर जाती हैं, बेटे उधर जाते हैं और सेठानी इस तरफ जाती है। सेठ, आप तो हर तरह से लुट गए हैं!' तब सेठ ने पूछा, 'मुझे करना क्या?' मैंने कहा, 'बात को समझो न। किस तरह जीवन जीना यह समझो। सिर्फ पैसों की ही पीछे मत पड़ो। शरीर का ध्यान रखते रहो, नहीं तो हार्ट फेल होगा।' शरीर का ध्यान, पैसों का ध्यान, बेटियों के संस्कार का ध्यान, सब कोने बहारने हैं। एक कोना आप बुहारते रहते हो, अब बंगले में एक ही कोना बहारते रहें और दूसरे सब तरफ कचरा पड़ा हो तो कैसा लगे? सभी कोने बहारने हैं। इस तरह तो जीवन कैसे जीया जाए? क्लेश रहित जीवन बाहर कहीं भी झगड़ा ही होने नहीं देता। इस मंबई में मतभेद बिना के घर कितने? मतभेद होता है, वहाँ कॉमनसेन्स कैसे कहलाएगा? घर में 'वाइफ' कहे कि अभी दिन है तो हम 'ना, अभी रात है' कहकर झगड़ने लगें तो उसका कब पार आएगा? हम उसे कहें कि हम तुझसे बिनती करते हैं कि रात है, ज़रा बाहर जाँच कर न।' तब भी वह कहे कि 'ना, दिन ही है।' तब हम कहें, 'यू आर करेक्ट । मुझसे भूल हो गई।' तो हमारी प्रगति शुरु हो, नहीं तो इसका पार आए ऐसा नहीं है। यह तो 'बाइपासर' (राहगीर) हैं सभी। 'वाइफ' भी 'बाइपासर' है। रिलेटिव, अंत में दगा समझ में आता है ये सभी 'रिलेटिव' सगाइयाँ हैं। इसमें कोई 'रियल' सगाई है ही नहीं। अरे, यह देह ही रिलेटिव है न! यह देह ही दगा है, तो उस दगे के सगे कितने होंगे? इस देह को हम रोज़ नहलाते-धुलाते हैं, फिर भी पेट में दु:खे तो ऐसे कहें कि रोज़ तेरा इतना ध्यान रखता हूँ, तो आज जरा शांत रह न? तब वह घड़ीभर भी शांत नहीं रहता। वह तो आबरू ले लेता है। अरे, इन बत्तीस दाँतों में से एक दु:खता हो न तब भी वह चीखें मरवाएँ। सारा घर भर जाए उतने तो सारी ज़िन्दगी में दातुन किए होंगे, रोज़ दातन घिसते रहे होंगे, फिर भी मँह साफ नहीं होता। वह तो था वैसे का वैसा ही वापिस। यानी यह तो दगा है। इसलिए मनुष्य जन्म और हिन्दुस्तान में जन्म हो, ऊँची जाति में जन्म हो, और यदि मोक्ष का काम नहीं निकाल लिया तो तू भटक मरा। जा तेरा सबकुछ ही बेकार गया! कुछ समझना तो पड़ेगा न? भले मोक्ष की ज़रूरत सबको नहीं हो, पर कॉमनसेन्स की जरूरत तो सबको है न? यह तो कॉमनसेन्स नहीं होने से घर का खा-पीकर टकराव होते हैं। सब क्या कालाबाजार करते हैं? फिर भी घर के तीन लोगों में शाम तक तैंतीस मतभेद पड़ते हैं। इसमें क्या सुख मिला? फिर ढीठ बनकर जीता है। ऐसा स्वमान बिना का जीवन किस काम का? उसमें भी मैजिस्ट्रेट साहब कोर्ट में सात वर्ष की सजा ठोककर आए होते हैं, कॉमनसेन्सवाला घर में मतभेद होने ही नहीं देता। वह कॉमनसेन्स कहाँ से लाए? वह तो 'ज्ञानी पुरुष' के पास बैठे, 'ज्ञानी पुरुष' के चरणों का सेवन करे तब कॉमनसेन्स उत्पन्न होगा। कॉमनसेन्सवाला घर में या
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
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