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४. फैमिलि आर्गेनाइजेशन बगैर शादी कैसे कर सकते हैं? यह माँ और बाप बनने की जिम्मेदारी देश के प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी से भी अधिक है। प्रधानमंत्री से भी ऊँचा पद है।
प्रश्नकर्ता : सर्टिफाइड फादर-मदर की परिभाषा क्या है?
दादाश्री : अन्सर्टिफाइड माँ-बाप यानी खुद के बच्चे खुद के कहे अनुसार चलते नहीं, खुद के बच्चे खुद पर भाव रखते नहीं, परेशान करते हैं! तब माँ-बाप अन्सर्टिफाइड ही कहलाएंगे न?
...नहीं तो मौन रखकर 'देखते' रहो एक सिंधी भाई आए थे, वे कहने लगे कि, एक बेटा ऐसा करता है और एक वैसा करता है, उनको कैसे सुधारना चाहिए? मैंने कहा, 'आप ऐसे बच्चे किसलिए लाए? बच्चे अच्छे छाँटकर हमें नहीं लाने चाहिए?' ये हाफूज के आम सब एक ही तरह के होते हैं, वे सब मीठी देखकर, चखकर सब लाते हैं। पर आप दो खट्टे ले आए, दो बिगड़े हुए लाए, कसैले लाए, दो मीठे लाए, फिर उसके रस में कोई बरकत आएगी क्या? फिर लड़ाई-झगड़ा करें उसका क्या अर्थ? हम खट्टा आम लेकर आए फिर खट्टे को खट्टा जानना उसका नाम ज्ञान। हमें खट्टा स्वाद आया उसे देखते रहना है। ऐसे इस प्रकृति को देखते रहना है। किसी के हाथ में सत्ता नहीं है। अवस्था मात्र कुदरती रचना है। उसमें किसी का कुछ चलता नहीं, बदलता नहीं और वापिस व्यवस्थित है।
प्रश्नकर्ता : मारने से बच्चे सुधरते हैं या नहीं?
दादाश्री : कभी भी सुधरते नहीं, मारने से कुछ सुधरता नहीं है। इस मशीन को मारकर देखो तो? वह ट जाएगी। वैसे ही ये बच्चे भी टूट जाएँगे। ऊपर से अच्छे खासे दिखते हैं, पर अंदर से टूट जाते हैं। दूसरों को एन्करेज करना नहीं आता तो फिर मौन रहो न, चाय पीकर चुपचाप। सबके मुँह देखता जा, ये दो पुतले कलह कर रहे हैं, उन्हें देखता जा। यह अपने काबू में नहीं है। हम तो इसके जानकार ही हैं।
क्लेश रहित जीवन जिसे संसार बढ़ाना हो उसे इस संसार में लड़ाई-झगड़ा करना चाहिए, सभी करना चाहिए। जिसे मोक्ष में जाना हो उसको हम, 'क्या हो रहा है' उसे 'देखो', ऐसा कहते हैं।
इस संसार में डाँटकर कुछ भी सुधरनेवाला नहीं है। उल्टे मन में अहंकार करता है कि मैंने बहुत डाँटा। डाँटने के बाद देखो तो माल था वैसा ही होता है, पीतल का हो वह पीतल का और काँसे का हो तो काँसे का ही रहता है। पीतल को मारते रहो तो उसे जंग लगे बगैर रहता है? नहीं रहता। कारण क्या है? तब कहे, जंग लगने का स्वभाव है उसका। इसलिए मौन रहना चाहिए। जैसे सिनेमा में नापसंद सीन आए तो उससे क्या हम जाकर परदा तोड़ डालते हैं? नहीं, उसे भी देखना है। सब ही. पसंद हों ऐसे सीन आते हैं क्या? कुछ तो सिनेमा में कुर्सी पर बैठे-बैठे शोर मचाते हैं कि 'अय | मार डालेगा, मार डालेगा!' ये बड़े दया के डिब्बे देख लो। यह तो सब देखना है। खाओ, पीओ, देखो और मजे करो!
....खुद का ही सुधारने की ज़रूरत प्रश्नकर्ता : ये बच्चे शिक्षक के सामने बोलते हैं, वे कब सुधरेंगे?
दादाश्री : जो भूल का परिणाम भुगतता है उसकी भूल है। ये गुरु ही घनचक्कर पैदा हुए हैं कि शिष्य उनके सामने बोलते हैं। ये बच्चे तो समझदार ही हैं, पर गुरु और माँ-बाप घनचक्कर पैदा हुए हैं ! और बड़ेबूढ़े पुरानी बातें पकड़कर रखते हैं, फिर बच्चे सामना करेंगे ही न? आजकल माँ-बाप का चारित्र ऐसा होता नहीं है कि बच्चे सामना नहीं करे। ये तो बड़े-बूढों का चारित्र कम हो गया है, इसीलिए बच्चे सामना करते हैं। आचार, विचार और उच्चार में पोजिटिव (सुलटा) बदलाव होता जाए तो खुद परमात्मा हो सकता है और उल्टा बदलाव हो तो राक्षस भी हो सकता है।
लोग सामनेवाले को सुधारने के लिए सब फ्रेक्चर कर डालते हैं। पहले खुद सुधरें तो दूसरों को सुधार सकते हैं। पर खुद के सुधरे बिना सामनेवाला किस तरह सुधरेगा? इसीलिए पहले आपका खुद का बगीचा