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________________ ४. फैमिलि आर्गेनाइजेशन सँभालो, फिर दूसरों का देखने जाओ। आपका सँभालोगे तब ही फलफूल मिलेंगे। दख़ल नहीं, 'एडजस्ट' होने जैसा है संसार का मतलब ही समसरण मार्ग, इसलिए निरंतर परिवर्तन ही होता रहता है। जब कि ये बड़े-बूढ़े पुराने जमाने से ही लिपटे रहते हैं। अरे! जमाने के अनुसार कर, नहीं तो मार खाकर मर जाएगा। जमाने के अनुसार एडजस्टमेन्ट लेना चाहिए। मेरा तो चोर के साथ, जेब काटनेवाले के साथ, सबके साथ एडजस्टमेन्ट हो जाता है। चोर के साथ हम बात करें तो वह भी समझता है कि ये करुणावाले हैं। हम चोर को 'त गलत है' ऐसा नहीं कहते, क्योंकि उसका वह 'व्यू पोइन्ट' है। जब कि लोग उसे नालायक कहकर गालियाँ देते हैं। तब ये वकील क्या झूठे नहीं है? 'बिलकुल झूठा केस भी जिता दूंगा', ऐसा कहते हैं, तो वे ठग नहीं कहलाएँगे? चोर को लुच्चा कहते हैं न, इस बिलकुल झूठे केस को सच्चा कहता है, उसका संसार में विश्वास किस तरह किया जाए? फिर भी उसका चलता है न? किसी को हम गलत नहीं कहते हैं। वह उसके व्यू पोइन्ट से करेक्ट ही है। पर उसे सच्ची बात समझाते हैं कि यह चोरी करता है, उसका फल तुझे क्या आएगा। ये बूढ़े लोग घर में आएँ तो कहेंगे, 'यह लोहे की अलमारी? यह रेडियो? यह ऐसा क्यों है? वैसा क्यों है?' ऐसे दख़ल करते हैं। अरे, किसी युवक से दोस्ती कर। यह तो युग ही बदलता रहेगा। उसके बिना ये जीएँ किस तरह? कुछ नया देखें, इसलिए मोह होता है। नया नहीं हो तो जीएँ ही कैसे? ऐसा नया अनंत आया और गया, उसमें आपको दखल नहीं करनी है। आपको ठीक नहीं लगे तो वह आप मत करो। यह आइस्क्रीम ऐसा नहीं कहती आपको कि हमसे भागो। हमें नहीं खाना हो तो नहीं खाएँ। यह तो बूढ़े लोग उन पर चिढ़ते रहते हैं। ये मतभेद तो ज़माना बदला उसके हैं। ये बच्चे तो ज़माने के अनुसार करते हैं। मोह यानी नया-नया उत्पन्न होता है और नया ही नया दिखता है। हमने बचपन से बुद्धि से बहुत ही सोच लिया कि यह जगत् उल्टा हो रहा है या सीधा हो रहा है, क्लेश रहित जीवन और वह भी समझा कि किसी को सत्ता ही नहीं है इस जगत् को बदलने की। फिर भी हम क्या कहते हैं कि जमाने के अनुसार एडजस्ट हो जाओ! बेटा नयी ही टोपी पहनकर आए तो ऐसा नहीं कहें कि ऐसी कहाँ से ले आया? इससे तो, एडजस्ट हो जाएँ कि इतनी अच्छी टोपी? कहाँ से लाया? कितने की आई? बहुत सस्ती मिली? ऐसे एडजस्ट हो जाए। ये बच्चे सारा दिन कान पर रेडियो लगाकर नहीं रखते? क्योंकि यह रस नया-नया उदय में आया है बेचारे को! यह उसका नया डेवलपमेन्ट है। यदि डेवलप हो गया होता, तो कान पर रेडियो लगाता भी नहीं। एकबार देख लेने के बाद वापिस छुआता ही नहीं। नवीन वस्तु को एक बार देखना होता है, उसका हमेशा के लिए अनुभव नहीं लेना होता है। यह तो कान की नयी ही इन्द्रिय आई है, इसलिए सारा दिन रेडियो सुनता रहता है! मनुष्यपन की उसकी शुरूआत हो रही है। मनुष्यपन में हजारों बार आया हुआ मनुष्य ऐसा-वैसा नहीं करते। प्रश्नकर्ता : बच्चों को घूमने-फिरने का बहुत होता है। दादाश्री : बच्चे कोई हमसे बँधे हुए नहीं हैं। सब अपने-अपने बंधन में हैं, हमें तो इतना ही कहना है कि 'जल्दी आना।' फिर जब आएँ तब 'व्यवस्थित'। व्यवहार सब करना, पर कषाय रहित करना। व्यवहार कषाय रहित हुआ तो मोक्ष, और कषाय सहित व्यवहार-वह संसार। प्रश्नकर्ता : हमारा भतीजा रोज़ नौ बजे उठता है, कुछ काम हो नहीं पाता। दादाश्री : हम उसे ओढ़ाकर कहें कि आराम से सो जा भाई। उसकी प्रकृति अलग है, इसलिए देर से उठता है और काम अधिक करता है। और मूर्ख चार बजे का उठा हो तब भी कुछ न करे। मैं भी हरएक काम में हमेशा लेट होता था। स्कूल में घंटी बजने के बाद ही घर से बाहर निकलता। और हमेशा मास्टरजी की डॉट सुनता था। अब मास्टरजी को क्या पता कि मेरी प्रकृति (स्वभाव) क्या है? हरएक का 'रस्टन' अलग, 'पिस्टन' अलग-अलग होता है।
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
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