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दादा भगवान?
दादा भगवान?
नहीं करता था। अर्थात् लोभ प्रकृति ही नहीं थी। मान इतना सारा था कि संसार में मझसा और कोई नहीं है। मान, बड़ा जबरदस्त मान! और वह तो मुझे किस कदर काटा, यह तो मैं ही जानता हूँ।
प्रश्नकर्ता : ज्ञानप्राप्ति से पहले आपकी कैसी परिणती थी?
दादाश्री : मुझे सम्यक्त्व होगा ऐसा लगता था। बाकी, सारी पुस्तकों की स्टडी (अभ्यास) का लेखा-जोखा करके यह खोज निकाला कि 'वस्तु क्या है?' यह सब समझ में आ गया था। और तीर्थंकर, वीतराग ही सच्चे पुरुष हैं और वीतरागों का मत सही है, यह ठान लिया था। वही अनंत काल का आराधन था। अर्थात् सब कुछ वही था। सारा व्यवहार जैनवैष्णवों का साथ में था। कुछ मामलों में वैष्णव व्यवहार और कुछ मामलों में जैन व्यवहार था। मैं उबला हुआ पानी सदैव पीया करता था, बीज़नेस पर भी उबाला हुआ पानी ही पीया करता था! आपका भी ऐसा जैन व्यवहार नहीं रहा होगा। पर वह ज्ञान प्राकट्य की वजह नहीं है। उसकी वजह तो अन्य अनेकों एविडन्सों का आ मिलना है। अगर ऐसा नहीं होता तो अक्रम विज्ञान कैसे प्रकट होता?! अक्रम विज्ञान में चौबीसों तीर्थंकरों का सारा विज्ञान सम्मिलित है। चौबीस तीर्थंकरों के अवधिकाल में जो नहीं सीझ पाये, नहीं बुझे, उन सभी को बुझने (गूढ़ बात समझनेवाले) के लिए यह विज्ञान है।
सच्चे दिलवालों को 'सच्चा' मिला प्रश्नकर्ता : पर आपको अक्रम ज्ञान प्रकट कैसे हुआ? अपने आप साहजिक रूप से या फिर कोई चिंतन किया था?
दादाश्री : अपने आप 'बट नैचुरल'(प्राकृतिक रूप से) हुआ! हमने ऐसा कोई चिंतन नहीं किया था। हमें इतना सारा तो कहाँ से प्राप्त होता? हमें ऐसा लगता था कि अध्यात्म में कुछ प्राप्ति होगी। सच्चे दिलवाले थे। सच्चे दिल से किया था, इसलिए ऐसा कुछ परिणाम आयेगा, कुछ सम्यक्त्व जैसा होगा, ऐसा लगता था! सम्यक्त्व की थोड़ी झलक होगी, उसका उजाला होगा, उसके बजाय यह तो पूर्ण रूप से उजियारा हो गया !
मोक्ष में संसार बाधा रूप नहीं प्रश्नकर्ता : आपने संन्यास क्यों नहीं लिया?
दादाश्री : संन्यास का तो ऐसा उदय ही नहीं था। इसका मतलब यह नहीं कि संन्यास के प्रति मुझे चिढ़ है पर मुझे ऐसा कोई उदय नज़र नहीं आया था और मेरी यह मान्यता रही है कि मोक्ष के मार्ग पर संसार बाधा रूप नहीं होना चाहिए, ऐसी मेरी दृढ़ मान्यता थी। संसार बाधा रूप नहीं है, अज्ञान बाधा रूप है। हाँ, भगवान को यह त्याग मार्ग का उपदेश करना पड़ता है, वह सामान्य भाव से किया गया है। वह किसी विशेष भाव से नहीं किया है। विशेष भाव तो यह है कि संसार बाधा रूप नहीं है, ऐसा हम गारन्टी के साथ कहते हैं।
ज्ञान प्रागट्य में जगत की पुण्यै प्रश्नकर्ता : यह अक्रम ज्ञान कितने जन्मों का लेखा-जोखा है?
दादाश्री : अक्रम ज्ञान जो प्रकट हुआ वह तो बहुत जन्मों का लेखाजोखा, सब मिलाकर अपने आप नैसर्गिक रूप से ही यह प्रकट हो गया है।
प्रश्नकर्ता : यह आपको 'बट नैचुरल' हुआ, मगर कैसे?
दादाश्री : कैसे माने उसके सारे सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स आ मिले, इसलिए प्रकट हो गया। यह तो लोगों को समझाने हेतु मुझे 'बट नैचुरल' कहना पड़ा। बाकी यों तो सारे सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स आ मिलने पर वह प्रकट हो गया।
प्रश्नकर्ता : कौन से एविडन्स आ मिले?
दादाश्री : सभी तरह के एविडन्स आ मिले ! सारे जगत का कल्याण होनेवाला होगा, वह समय भी परिपक्व हुआ होगा। होने के लिए कुछ निमित्त तो चाहिए न?
ज्ञान होने के पूर्व की दशा वह दशा ज्ञानांक्षेपकवंत कहलाये। मतलब आत्मसंबंधी विचारणा की