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दादा भगवान?
दादा भगवान?
नहीं करता था कि जिस साधना से किसी वस्तु की प्राप्ति हो। क्योंकि मुझे किसी वस्तु की कामना नहीं थी। इसलिए ऐसी साधना करने की
आवश्यकता ही नहीं थी। मैं तो साध्य वस्तु की साधना करता था। जो विनाशी नहीं है, ऐसी अविनाशी वस्तु जो है उसके लिए साधना करता था। अन्य साधनाएँ मैं नहीं करता था।
ज्ञान से पहले कोई मंथन? प्रश्नकर्ता : ज्ञान से पहले मंथन तो किया होगा न?
दादाश्री : दुनिया की कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है कि जिसके बारे में सोचना बाकी रखा हो! इसलिए यह ज्ञान प्रकट हुआ है। यहाँ आपके मुँह से दो शब्द निकले नहीं कि मुझे आपकी पूरी बात समझ में आ जाएँ। हमारे एक मिनट में पाँच-पाँच हजार रिवॉल्युशन फिरते हैं। कोई भी शास्त्र का सारांश दो मिनट में निकाल लूँ! पुस्तक में सर्वांश नहीं होता। सर्वांश ज्ञानी पुरुष के पास होता है। शास्त्र तो डाइरेक्शन (दिशा निर्देश) करे।
इस अवतार में नहीं मिले कोई गुरु प्रश्नकर्ता : आपके गुरु कौन?
दादाश्री : गुरु तो यदि इस अवतार में प्रत्यक्ष मिलें हों तो उसे गुरु कह सकते हैं। हमें प्रत्यक्ष कोई नहीं मिला। कई साधु-संतो से भेंट हुई। उनके साथ सत्संग किया था, उनकी सेवा की थी पर गुरु करने योग्य कोई नहीं मिला। हर एक भक्त, जो सारे ज्ञानी हुए है, उनकी रचनाएँ पढ़ी थी पर रूबरू किसी से नहीं मिला था।
अर्थात् ऐसा है न, हम श्रीमद् राजचंद्रजी (गुजरात में हुए ज्ञानीपुरुष) को गुरु नहीं मान सकते, क्योंकि रूबरू मिलने पर गुरु माने जाएँ (श्रीमद् दादाजी को प्रत्यक्ष रूप में नहीं मिले थे)। अलबत्ता उनकी पुस्तकों का आधार बहुत अच्छा रहा। अन्य पुस्तकों का भी आधार था पर राजचंद्रजी की पुस्तकों का आधार अधिक था।
मैं तो श्रीमद् राजचंद्रजी की पुस्तकें पढ़ता था, भगवान महावीर की
पुस्तकें पढ़ता था, कृष्ण भगवान की गीता का पठन करता था, वेदांत के खंडों का भी वाचन किया था, स्वामीनारायण संप्रदाय की पुस्तकें भी पढ़ी थी और मुस्लिमों का साहित्य भी पठन किया था, और वे सभी क्या कहना चाहते हैं, सभी का कहने का मतलब क्या है, हेतु क्या है, यह जान लिया था। सभी का सही है पर अपनी-अपनी कक्षा के अनुसार। अपनी-अपनी डिग्री पर सही है। तीन सौ साठ डिग्री मानी जाए तो कोई पचास डिग्री पर आया है, कोई अस्सी डिग्री पर पहुँचा है, कोई सौ डिग्री पर है, किसी की डेढ सौ डिग्री है, सत्य सभी का है. पर किसी के पास भी तीन सौ साठ डिग्री नहीं है। भगवान महावीर की तीन सौ साठ डिग्री थी।
प्रश्नकर्ता : यह अभ्यास आपका कहाँ पर हुआ? दादाश्री : यह अभ्यास? वह तो कई जन्मों का अभ्यास होगा!
प्रश्नकर्ता : पर शुरू-शुरू में, जन्म होने के पश्चात् किस तरह का था? जन्म लेने के बाद शुरूआत कहाँ से हुई?
दादाश्री : जन्म होने के बाद वैष्णव धर्म में थे, बाद में स्वामीनारायण धर्म में फिरे, अन्य धर्मों में घूमे, शिव धर्म में घूमे, फिर श्रीमद् राजचंद्रजी के आश्रम की मुलाकात ली, फिर महावीर स्वामी की पुस्तकें पढ़ी, यह सब बारी-बारी से पढ़ा! ऐसी हमारी दशा रही थी, साथ-साथ कारोबार भी चलता था।
सिन्सियारिटी तो निरंतर वीतरागों के प्रति ही प्रश्नकर्ता : आपने ऐसा और कुछ किया था क्या?
दादाश्री : कुछ भी नहीं, पर निरंतर वीतरागों के प्रति सिन्सियारिटी (संनिष्ठा) ! कृष्ण भगवान के प्रति सिन्सियारिटी ! इस संसार की रुचि नहीं थी। सांसारिक लोभ बिलकुल भी नहीं था। जन्म से ही मझ में लोभ की प्रकृति ही नहीं थी। अरे! किसी बड़े आदमी का बगीचा हो, जिसमें अमरुद हो, अनार हो, मौसंबी हो, ऐसे बड़े-बड़े बगीचों में ये सभी बच्चे घूमने जाते, उस समय फलों की गठरियाँ बाँधकर घर लाते थे पर मैं ऐसा कुछ