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तुरंत पहुँच जाना क्रम मुख्य मार्ग है जो नियमित रूप से है। जब कि 'अक्रम' अपवाद मार्ग है, 'डायवर्ज़न' है।
क्रम मार्ग कहाँ तक चलता है? जहाँ तक मन-वचन-काया की एकता होती है, अर्थात् जैसा मन में हो वैसा ही वाणी में हो और वर्तन में हो, जो इस समय असंभव है, क्योंकि क्रम का सेतु बीच में टूट गया है और कुदरत ने मोक्षमार्ग जारी रखने के लिए, अंतिम अवसर के तौर पर यह 'डायवर्ज़न' (मोड़) अक्रम मार्ग संसार को उपलब्ध कराया है। इस अंतिम अवसर से जो लाभान्वित हो गया, समझो 'उस' पार निकल गया।
क्रम मार्ग में पात्र की शुद्धि करते करते, क्रोध-मान-माया-लोभ को शुद्ध करते करते अंततः अहंकार पूर्णतया शुद्ध करना पड़ता है, ताकि उसमें क्रोध - मान-माया - लोभ का परमाणु मात्र नहीं रहे, तब अहंकार पूर्णतया शुद्ध होता है और शुद्धात्मा स्वरूप के साथ अभेदता होती है।
इस समय क्रमिक मार्ग अशक्य हो गया है इसलिए 'अक्रम विज्ञान' के द्वारा मन-वचन-काया की अशुद्धियों को एक ओर रखकर 'डिरेक्ट' (सीधा) अहंकार शुद्ध हो जाए और अपने स्वरूप के साथ अभेद हो जाए ऐसा संभव हुआ है। उसके बाद मन-वचन काया की अशुद्धियाँ, क्रमशः उदयानुसार आने पर उनकी संपूर्ण शुद्धि 'ज्ञानी' की आज्ञा में रहने पर साहजिक रूप से हो जाती है।
इस दुषमकाल में कठिन कर्मों के बीच रहकर सभी सांसारिक जिम्मेवारियाँ आदर्श रूप में अदा करते करते भी 'मैं शुद्धात्मा हूँ' यह लक्ष्य निरंतर बना रहता है। 'अक्रम विज्ञान' की यह अजीब देन तो देखिए! कभी सुनी नहीं हो, कहीं पढ़ने में नहीं आई हो ऐसी अपूर्व बात, जो एक बार तो मानने में ही नहीं आती, फिर भी आज हक़ीकत बन गई है !
ऐसे अजायब 'अक्रम विज्ञान' को प्रकाशित करनेवाले पात्र की पसंदगी कुदरत ने किन कारणों के आधार पर की होगी, इसका उत्तर तो प्रस्तुत संकलन में अक्रम ज्ञानी के पूर्वाश्रम के प्रसंग और ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उनकी जागृति की पराकाष्ठा को निर्देश करनेवाले प्रसंगों से अपने आप प्राप्त होता है।
जीवन में कडुए-मीठे अवसरों से किसका पाला नहीं पड़ा होगा? लेकिन ज्ञानी उनसे जुदा कैसे रह पाएँ? जीवन की चाँदनी और अमावस का आस्वाद, ज्ञान- अज्ञान दशा में लेते थे, तब उस प्रसंग में ज्ञानी की अपनी अनन्य, अनोखी और मौलिक दृष्टि होती है। ऐसे सामान्य अवसरों में अज्ञानी जीवों का हज़ारों बार गुज़रना होता है, पर उनकि न तो कोई अंतर दृष्टि खुलती है और न ही उनके वेदन की सम्यक् दृष्टि का प्रादुर्भाव होता है। जब कि 'ज्ञानी' तो अज्ञान दशा में भी, अरे, जन्म से ही सम्यक् दृष्टि के धनी होते हैं। प्रत्येक अवसर पर वीतराग दर्शन के जरिये खुद सम्यक् मार्ग का संशोधन किया करते हैं। अज्ञानी मनुष्य जिनका अनुभव हज़ारों बार कर चुके हैं, ऐसे अवसरों में से 'ज्ञानी' कोई नया ही निष्कर्ष निकालकर ज्ञान की खोज किया करते हैं।
'होनहार बिरवान के होत चिकने पात' (गुणी लोगों के बचपन से ही गुणवान होने के लक्षण दिखने लगते हैं।) इस उक्ति को सार्थक करते हुए उनके बचपन के प्रसंग जैसे कि, जब उनकी माताजी ने वैष्णव संप्रदाय की माला पहनने पर जोर दिया तो वे बोल पड़े 'प्रकाश दिखलाए वही मेरे गुरु । कुगुरु की तुलना में निगुरा ही बेहतर।' ऐसे प्रसंगों के अनुसंधान में किसी व्यक्ति या उस वर्तन को नज़र अंदाज करते हुए, बालदशा में प्रवर्तमान ज्ञानी की अद्भूत विचारधारा, अलौकिक दृष्टि और ज्ञान दशा के परिपेक्ष्य में ही द्रष्टि करके उसका अभ्यास करना बेहतर होगा।
प्रस्तुत संकलन में ज्ञानी पुरुष की अपनी बानी में ही संक्षिप्त रूप से उनके जीवन के प्रसंगो को संकलित किया गया है। इसके पीछे यही अंतर आशय है कि 'प्रकट ज्ञानी पुरुष' की इस अद्भूत दशा से जगत् परिचित हो और उसे समझकर उसकी प्राप्ति करे, यही अभ्यर्थना ।
- डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद