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निवेदन ज्ञानीपुरुष श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से आत्मतत्त्व के बारे में जो वाणी निकली, उसको रिकार्ड करके संकलन तथा संपादन करके ग्रंथो में प्रकाशित की गई है। इस पुस्तक में परम पूजनीय दादा भगवान के स्वमुख से नीकली सरस्वती का हिन्दी अनुवाद किया गया है, जिनमें उनके जीवनचरित्र साथ साथ आत्मविज्ञान की बातें है। सुज्ञ वाचक के अध्ययन करते ही उनको जो आत्मसाक्षात्कार हुआ वही आत्मसाक्षात्कार पाने की भूमिका निश्चित बन जाती है, ऐसा अनेकों का अनुभव है।
'अंबालालभाई' को सब 'दादाजी' कहते थे। 'दादाजी' याने पितामह और 'दादा भगवान' तो वे भीतरवाले परमात्मा को कहते थे। शरीर भगवान नहीं हो सकता है, वह तो विनाशी है। भगवान तो अविनाशी है और उसे वे 'दादा भगवान' कहते थे, जो जीवमात्र के भीतर है।
संपादकीय जून १९५८ की उस शाम का छह बजे के करीब का समय, भीड़ से धमधमाता सुरत का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं.३के बेन्च पर अंबालाल मूलजीभाई पटेल बैठे थे। सोनगढ-व्यारासे बडौदा जाने के लिए ताप्ती-वेली रेल्वे से उतरकर बडौदा जानेवाली गाडी की प्रतीक्षा में थे, उस समय प्रकृति ने रचा अध्यात्म मार्ग का अद्भुत आश्चर्य।
कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए प्रयत्नशील 'दादा भगवान', अंबालाल मूलजीभाई रूपी मंदिर में कुदरत के क्रमानुसार अक्रम स्वरूप में पूर्ण रूप से प्रकट हो गये। एक घंटे में विश्वदर्शन प्राप्त हुआ! जगत् के तमाम आध्यात्मिक प्रश्रों के उत्तर नज़र आये और प्रश्नों की पूर्णाहति हई! जगत क्या है? कैसे चल रहा है? हम कौन? ये सभी कौन? कर्म क्या है? बंधन क्या है? मुक्ति क्या है? मुक्ति का उपाय क्या है? ऐसे असंख्य प्रश्नों का रहस्य नजर आया। ऐसे, कुदरत ने संसार के चरणों में एक अजोड संपूर्ण दर्शन प्रस्तत किया और उसका माध्यम बने श्री ए.एम.पटेल, भादरण गाँव के ज़मींदार, कान्ट्रैक्टर का धंधा करनेवाले, फिर भी परम 'सत्'को ही जानने की, 'सत्'को ही पाने की
और बचपन से ही 'सत्' स्वरूप होने की कामना रखनेवाले इस भव्य पात्र में ही 'अक्रम विज्ञान' प्रकट हुआ।
उन्हें जो प्राप्त हुआ वह तो एक आश्चर्य था ही पर उससे भी बड़ा आश्चर्य तो यह था कि उन्होंने जो देखा, जाना और अनुभव किया वैसी ही प्राप्ति अन्यों को करवाने की उनकी समर्थता! खुद अपना आत्म कल्याण करके मुक्ति पानेवाले अनेक होंगे पर अपनी तरह हज़ारों को छुड़ाने का सामर्थ्य तो केवल तीर्थंकरों में या ज्ञानीओं में कोई विरले ज्ञानी में ही होता है! ऐसे विरल ज्ञानी, जिसने इस कलिकाल के अनुरूप 'इन्स्टन्ट' आत्मज्ञान प्राप्ति का अद्भुत मार्ग खोल दिया, जो 'अक्रम' के नाम से प्रचलित हुआ। 'अक्रम' माने अहंकार का फुल स्टॉप (पूर्ण विराम) मार्ग और क्रम माने अहंकार का कोमा (अल्पविराम) मार्ग। अक्रम माने जो क्रम से नहीं वह । क्रम माने सीढ़ी चढ़ना और अक्रम माने लिफ्ट में
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ख्याल रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो। उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो "हमारी हिन्दी याने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का मिक्ष्चर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।"
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए हम आप के क्षमाप्रार्थी हैं।