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(१६) 'रिलेटिव' धर्म : विज्ञान
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धर्मसार किसे कहा जाता है? आपको छेड़े-करें तो भी किसीका दोष नहीं दिखे, उसे। जगत् का सार क्या है? तो कहे, विषयसुख। धर्म का सार क्या है? तो कहे, आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं हों, वह। धर्मसार, जगत् में मुख्य सार है। धर्मसार प्राप्त नहीं हुआ, वह धर्म ही गलत है। फिर जैन हो या वैष्णव हो या चाहे जो हो, वे ग्रहण की हुई सारी बातें गलत हैं!
स्वाभाविक परिणति, स्वपरिणति उत्पन्न हुई यानी समयसार उत्पन्न
हुआ।
धर्म क्या? विज्ञान क्या? धर्म और विज्ञान में फ़र्क है। विज्ञान सैद्धांतिक होता है और धर्म सभी 'रिलेटिव' होते हैं, उनका फल भी 'रिलेटिव' होता है और उनकी क्रियाएँ भी 'रिलेटिव' होती हैं। 'मैं' 'चंदूभाई हूँ', ऐसा मानकर आप जो करते हो वह धर्म है और 'जैसा है वैसा' यथार्थ जाना, वह विज्ञान कहलाता है। नि:शंक होने के बाद, खुद का स्वरूप जानने के बाद 'जैसा है वैसा' जाने वह विज्ञान कहलाता है। विज्ञान अविरोधाभासी होता है, 'जैसा है वैसा' फेक्ट वस्तु ही बताता है।
प्रश्नकर्ता : इसे जरा विस्तार से समझाइए।
दादाश्री : ऐसा है न, 'आप चंदूभाई हो' ऐसा करके किसीको गालियाँ दो तो वह अधर्म कहलाएगा और किसीको अच्छा-अच्छा खिलाओ-पिलाओ, किसीके मन को शांति दो, वह धर्म कहलाएगा और किसीको खराब लगे, किसीके मन को अशांति दे तो वह अधर्म कहलाएगा। 'रिलेटिव' वस्तु से 'रिलेटिव' उत्पन्न होता है और 'रियल' वस्त से 'रिलेटिव' उत्पन्न नहीं होता। 'रियल' से सारा 'रियल' ही उत्पन्न होता है, सिर्फ 'रियल' को रियलाइज़ करना बाकी है। अभी तो आपको भ्रामक मान्यताएँ हैं कि 'यह सब मेरी शक्ति से चलता है. भगवान ने किया. मेरे ग्रह खराब है। वास्तव में कर्ता दूसरा ही है।
(१७) भगवान का स्वरूप, ज्ञान दृष्टि से
ईश्वर का अंश या सर्वांश? दादाश्री : आप कौन हो? प्रश्नकर्ता : मैं ईश्वर का अंश हूँ।
दादाश्री : यह अंश की बात लोगों को समझाकर उल्टे रास्ते पर चलाया है। खुद भगवान का अंश किस प्रकार से हो सकता है? भगवान के टुकड़े किस तरह किए जा सकते हैं? आत्मा असंयोगी वस्तु है। संयोगी वस्तु हो तो उसके टुकड़े करें। आत्मा स्वाभाविक वस्तु है, स्वाभाविक के टुकड़े नहीं हो सकते। वास्तव में आप सर्वांश ही हो, परन्तु आवरित हो। ईश्वर का मैं अंश हूँ' उसका अर्थ क्या कहना चाहते हैं कि मुझे अंशज्ञान प्रकट हुआ है, अंश आवरण खुला है। ये सूर्यनारायण तो पूर्ण हैं, परन्तु जितना विरण हटा उतने अंशों में प्रकाश हुआ, परन्तु सूर्यनारायण तो सर्वांश ही हैं। वैसे ही आप खुद सर्वांश ही हो, मात्र आवरित हो। शुरूआत में एकेन्द्रिय जीव होता है, उसका अंश आवरण खुल गया है। उसे कुल्हाड़ी मारो तो दुःख होता है, परन्तु गालियाँ दो या चाय दो तो उसे कुछ भी नहीं होता। फिर दो इन्द्रिय वे सीप, फिर तीन इन्द्रिय कीट पतंगे, फिर चार इन्द्रिय और फिर पाँच इन्द्रिय होते हैं। पंचेन्द्रियवाले को पंचेन्द्रिय जितना आवरण खुला है। बाकी भगवान हर एक में सर्वांश रूप में ही हैं, मात्र आवरण सहित है। संपूर्ण निरावरण हो जाए तो आप खुद ही परमात्मा हो। जिसका विभाजन होता हो, उसके अंश होते हैं। आत्मा तो अविभाज्य है, उसके अनंत प्रदेश अविभाज्य रूपी हैं।