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(१६) 'रिलेटिव' धर्म : विज्ञान
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आप्तवाणी-४
१. धर्माधर्म आत्मा (मूढ़ात्मा)
२. ज्ञानधन आत्मा (अंतरात्मा)
३. विज्ञानघन आत्मा (परमात्मा)
ज्ञानघन आत्मा
धर्म का फल वह है कि शब्द से चोट नहीं लगे। अपने पास कुछ तो होना चाहिए न कि जो बताए कि कितना बुख़ार चढ़ा और कितना उतरा?
मुख्य भावना, मोक्षमार्ग में तीन चीज़ों की मोक्षमार्ग में ज़रूरत है: १. आत्मा प्राप्त करने की तीव्र इच्छा। २. 'ज्ञानी पुरुष' प्राप्त करने की तीव्र इच्छा।
३. 'ज्ञानी पुरुष' नहीं मिलें तब तक 'ज्ञानी पुरुष' प्राप्त हों, ऐसी भावना करना।
प्रथम 'ज्ञानी पुरुष' के लिए भावना करनी चाहिए, वे मिलें तो लाभ हो जाता है। बस इतना ही मूल रास्ता है, दूसरा सब व्यवहार धर्म है। और व्यवहार धर्म में निश्चय धर्म है तो बस ये तीन वाक्य ही हैं। इतना समझ में आए तो हल आ जाएगा।
'पूरे ब्रह्मांड के जीव-मात्र के रियल स्वरूप को अत्यंत भक्ति से नमस्कार करता हूँ। रियल स्वरूप, वह भगवत् स्वरूप है, इसलिए पूरे जगत् का भगवत् स्वरूप से दर्शन करता हूँ।'
यह वाक्य यदि समझ जाए, तब भी धर्म प्राप्त कर लिया कहा जाएगा।
ये सारे धर्म 'रिलेटिव' धर्म हैं। रिलेटिव' धर्म अर्थात् भौतिक दु:ख निकालकर भौतिक सुख देनेवाले हैं, ये मोक्ष देनेवाले नहीं हैं। 'रिलेटिव' अर्थात् व्यू पोइन्ट! एक-एक व्यू पोइन्ट में लाखों लोग होते हैं।
धर्माधर्म आत्मा अधर्म को धक्का मारता रहे वह धर्म, उसे धर्माधर्म कहा जाता है। जहाँ भी अधर्म हो वहाँ धर्म होता ही है, क्योंकि अधर्म निकालने के लिए ही धर्म है। आत्मा की तीन दशाएँ हैं:
सिद्धांत कब कहलाता है? धर्माधर्म पद में से आगे बढ़े और 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा का पात्र हो जाए, तब ज्ञानधन आत्मा में आता है। आत्मा ज्ञानघन है और अविनाशी है। ज्ञानघन अर्थात् क्या कि 'वॉट इज़ रियल एन्ड वॉट इज रिलेटिव?' यानी कि शाश्वती और अशाश्वती वस्तु को पहचानने लगे तब थियरी ऑफ रियालिटी में आता है और मोक्ष होता है। तब शुद्धात्मा का लक्ष्य बैठता है, अलख-निरंजन का लक्ष्य बैठता है, तब काम होता है। यह संसार 'रिलेटिव' है और हम 'रियल' हैं। यानी हमें 'रियल' के पक्ष में रहना है और 'रिलेटिव' का निकाल करना है। चिपटे हए भूत का निकाल करना पड़ेगा न? यह तो साइन्स है। साइन्स में किसीको मतभेद नहीं होता। मतभेद धर्माधर्म में होता है। जितने धर्म चलते हैं, उन सभी में मतभेद होता है, विकल्प होते हैं। विकल्प कब तक कहलाते हैं? धर्माधर्म आत्मा है, तब तक। अधर्म को धक्के मारता रहे, वह धर्म। अरे, अधर्म के साथ ठीक नहीं लगता हो तो राग-द्वेष के बिना रह न, पर किस तरह रहे? अधर्म के प्रति द्वेष और धर्म के प्रति राग!! धर्माधर्म आत्मा, वह मिथ्यात्व दशा है। 'रिलेटिव' धर्म धर्माधर्म कहलाते हैं। रिलेटिव' धर्म करे तो अच्छा कहलाता है, आगे जाकर अच्छा खाना-पीना मिलेगा और गाड़ी चलेगी। पर ये सब सिगड़ी के सुख कहलाते हैं। सिगड़ी कहीं कोट से चिपटाई जाती है? मोक्ष जाने के लिए तो अधर्म को या किसीको भी धक्का नहीं मारना पड़ता। मोक्ष जाने के लिए तो अधर्म का और धर्म का, दोनों का निकाल करना है। धर्माधर्म वह देह का, मन का, बुद्धि का, प्रकृति का स्वभाव है और आत्मा का वीतराग स्वभाव है। यदि आपको वीतराग स्वभाव में रहना हो तो धर्म के प्रति प्रेम स्थापित मत करना और अधर्म के साथ किच-किच मत करना।'ऑल दीज़ रिलेटिव्स आर टेम्परेरी एन्ड रियल इज़ परमानेन्ट'।