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(१३) व्यवहारधर्म : स्वाभाविकधर्म
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आप्तवाणी-४
बाह्यसुख की कैसी भेंट(!)?
अंतरशांति तृप्ति देती है और बाह्य शांति से लोभ बढ़ता रहता है। जहाँ स्वार्थ बुद्धि है, वहाँ अंतरशांति नहीं रहती।
अहंकार विलय होने से सनातन सुख जितना उल्टा चले उतना इगोइज़म बढ़ता है और जितना इगोइजम विलय हो उतना सुख बरतता रहता है। हमारा इगोइजम खत्म हो गया है, इसलिए निरंतर सनातन सुख रहता है। दुःख में भी सुख रहे, वह खरा सुख है। कोई अपमान करे तब भी खुद को भीतर सुख लगता है, तब ऐसा होता है कि, 'अरे, यह कैसा सुख!'
आत्मा में परमसुख ही है, लेकिन कलुषित भाव के कारण वह सुख आवरित हो जाता है। यह सुख कहाँ से आता है? विषयों में से? मान में से? क्रोध में से? लोभ में से? इनमें किसीमें से नहीं आए तो समझना कि यह समकित है। जहाँ कुछ भी दुःख नहीं होता, वहाँ आत्मा है।
मिथ्या दर्शन से ही दुःख संसार में दु:ख की उपासना की है, इसलिए दु:ख है। वास्तव में दु:ख नहीं है।
इस जगत् में सबकुछ ही है, परन्तु दु:ख किसलिए उपस्थित हुए हैं? अदर्शन से ही। सम्यक् समझ किसे कहा जाता है कि दुःख में से सुख का शोधन करे।
करना। माँ-बाप की सेवा से तो अपार सुख प्राप्त हो ऐसा है।
लोगों ने जिसमें सुख माना, उसमें हमें भी सुख मानना, वह लोकसंज्ञा है। और आत्मा में ही सुख है वैसा मानना, वह ज्ञानी की संज्ञा है।
एक व्यक्ति भगवान से रोज प्रार्थना करे कि, 'हे भगवान! मुझे सुखी करो, सुखी करो।' दूसरा व्यक्ति प्रार्थना करे तब बोलता है कि, 'हे भगवान! घर के सभी लोग सुखी हों।' उसमें खुद तो आ ही जाता है। सच्चा सुखी दूसरावाला व्यक्ति होता है, पहलेवाले की अर्जी बेकार जाती है। और हम तो जगत्कल्याण की भावना करते हैं उसमें खुद का आत्यंतिक कल्याण आ जाता है।
दुःख उपकारी बनते हैं प्रश्नकर्ता : कुन्ती ने दुःख माँगा, सुख नहीं माँगा, ताकि भगवान याद आएँ। उसका रहस्य क्या है?
दादाश्री : ऐसा है, घर का यह दरवाजा हम हमेशा बंद रखते थे। पर एक जाए और बंद करें, तब तक तो दूसरा खटखटाता है। वह जाए तब दरवाजा बंद करें, वहाँ पर तीसरा खटखटाता है, ऐसे परे दिन चलता रहता है। यदि तीन घंटे तक कोई नहीं खटखटाए तो बंद किया हुआ काम का है, पर यह तो बंद करें और खटखटाए, बंद करें और खटखटाए, इसलिए बंद करें, उसके बदले तो दरवाजा खुला ही रख दो न! वैसे ही एक पर एक दु:ख आएँ, तब दुःख से कह दो कि, 'ये दरवाजे खुले हैं, तुझे जब आना हो तब आ और जब जाना हो तब जा।'
जितने संत हुए हैं, वे सभी किसके भोक्ता थे! वे दु:खभोक्ता थे। दुःख और सुख विकल्प हैं। इसलिए विकल्प को चेन्ज कर देते हैं, यानी दुःख का नाम सुख और सुख का नाम दु:ख रख देते हैं। फिर दरवाजे खुले रखते हैं, जिसे आना हो वह आए।
पुद्गल सुख : उधार का व्यवहार पुद्गल सुख की आशा छोड़, वह उधारी व्यवहार है। पुद्गल सुख
जिस दु:ख से हम घबराएँ नहीं, वह सामने आता ही नहीं, लुटेरा भी नहीं आता और भगवान भी नहीं आते!
भगवान क्या कहते हैं कि यदि तुझे मोक्ष चाहिए तो 'ज्ञानी पुरुष' के पास जा और संसार में सुख चाहिए हो तो माँ-बाप और गुरु की सेवा