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________________ (१३) व्यवहारधर्म : स्वाभाविकधर्म १११ ११२ आप्तवाणी-४ संसारी सुख चाहिए तो संसारी बनना पड़ेगा। संसारी सुख पूरण-गलन स्वभाव का है, आता है और फिर उड जाता है, वह द्वंद्ववाला है। 'मैं कौन हूँ', उसका खयाल आ जाए, बाद में ही हमेशा सच्चा सुख बरतता है। प्रश्नकर्ता : संसार में सुख कब मिलेगा? दादाश्री : संसार में सुख होता ही नहीं है। परन्तु भगवत् उपाय लो तो कुछ शांति लगती है और ज्ञान उपाय से हमेशा के लिए शांति लगती है। अभी निन्यानवे प्रतिशत दुःख और एक प्रतिशत सुख, सांसारिक सुख है। सत्युग में सुख थे। काल का तो क्या दोष? प्रश्नकर्ता : समय के कारण सुख-दुःख होते हैं? दादाश्री : यह तो समसरण मार्ग है। ये जीव प्रवाह में बह रहे हैं, यानी कि गति कर रहे हैं। गति किस तरह नापी जाए? द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव मिल जाएँ तब कार्य दिखता है। काल प्रत्यक्ष दिखता है इसलिए लोग काल को ही गाते रहते हैं। इस कलियुग में, इस दूषमकाल में हम आए, उसमें अपना कर्त्तापन कितना है? उसमें अपना कितना हिस्सा है? पूरे जगत् को भीतर अपार जलन है। निरंतर अंतरदाह होता रहता है। किसीने कहा कि, 'चंदूभाई में अक्कल नहीं है' तो भीतर असर हो जाता है, अंतरदाह लगता है। अंतरदाह यानी क्या? भीतर परमाण जलते हैं और एक जले, तब दूसरे को सुलगाता है, दूसरा तीसरे को सुलगाता है, ऐसा निरंतर चलता रहता है, 'इलेक्ट्रिसिटी' की तरह जलता रहता है, वेदना की तरह भुगतना पड़ता है। विशेष परमाणु सुलगें, तब लोग कहते हैं कि, 'मेरी जान जलती रहती है।' वह किस तरह सहन हो? जिसका अंतरदाह गया, तब से ही मुक्ति की नौबतें बजीं! 'नोर्मेलिटी' से बाहर चला गया है, इसलिए 'पोइजन' हो गया है। आज इस भौतिक विज्ञान से अपार बाह्यसुख हो गए हैं, जब कि दूसरी ओर अंतरसुख सूख गया है! अंतरसुख और बाह्यसुख, इन दोनों का कुछ 'इक्वल बैलेन्स' (संतुलन) होना चाहिए। थोड़ा-बहुत कम-ज्यादा हो गया हो तो चलेगा, पर उसका अनुपात होना चाहिए। भौतिक सुख नीचे गया हो तो चला सकते हैं, पर आज तो आंतरिक सुख खत्म हो गया है। इस अमरीका में तो बिल्कुल खत्म हो गया है। वहाँ की प्रजा को तो बीसबीस गोलियाँ खाएँ, तब मुश्किल से नींद आती है! अमरीका ने एक तरफ अपार भौतिक सुख प्राप्त किए हैं, जब कि दूसरी तरफ अंतरसुख खत्म हो गया!! यह कैसा साइन्स!!! मनुष्य अंतरशांति के लिए बाहर भागदौड़ करते हैं, पर इस तरह भागदौड़ से शांति मिलेगी? अंतरशांति हो तभी बाहर शांति मिलेगी। इसलिए पहले अंतर में सुख है वैसा श्रद्धा में आ जाना चाहिए, तब अंतरशांति मिलेगी। भगवान ने क्या कहा था कि अंतरसुख और बाह्यसुख का काँटा देखते रहना। अंतरसुख कम हो और बाह्यसुख बढ़े तो समझना कि मरनेवाला है। काँटा थोड़ा-बहुत ऊँचा-नीचा हो तो चला सकते हैं, पर यह तो अंतरसुख की डंडी बिल्कुल ऊँची चली गई, तब तेरी क्या दशा होगी? ये बाहर के सुख बढ़ा दिए, चालीस लाख के फ्लेट लिए हों, खाने-पीने का बहुतायत में हो, टोकरे भर-भरकर फ्रूट के हों, तब साहब को ब्लड प्रेशर और हार्ट अटेक आए हुए होते हैं और मेमसाहिब को डायाबिटीज़ हुआ होता है ! उन दोनों के मुँह पर डॉक्टर ने सीकी (पशुओं के मुँह पर बाँधी जानेवाली जाली) बाँध दी होती है!!! फिर यह सब खाए कौन? तब कहें, घर के वे चूहे, नौकर और रसोइये खा-पीकर गोल-मटोल हो गए होते हैं! फ्लेट में जाओ तो जैसे शमशान में नहीं आ गए हों! सेठ के साथ बातें करो तो भी निरे अहंकार से बात करता है वह । सेठ महँगे भाव की चाय पिलाते हैं, पर जब तक भावरूपी द्रव्य नहीं पड़ा है, तब तक चाहे जैसा सोलह आनी का सोना हो, फिर भी बेकार है। सेठ का मुँह देखें तो जैसे कि सेठ हँसना ही भूल गए हों, वैसा लगता है! यह अंतरसुख - बाह्यसुख आज का भौतिक विज्ञान 'आउट ऑफ बैलेन्स' हो गया है,
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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