________________
(९) व्यक्तित्व सौरभ
आप्तवाणी-४
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी' में नम्रता की पराकाष्ठा होती है?
दादाश्री : नम्रता तो सामान्य मनुष्य में भी होती है, पर 'ज्ञानी' को तो अहंकार ही नहीं होता। गालियाँ दें तो भी अहंकार नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी' निस्पृही होते हैं?
दादाश्री : 'ज्ञानी' निस्पृही नहीं होते। निस्पृही तो बहुत लोग होते हैं। हमें कुछ नहीं चाहिए', ऐसा बहुत लोग कहते हैं, पर वे निस्पृहता का अहंकार है। 'ज्ञानी पुरुष' सस्पृह-निस्पृह होते हैं। यानी भौतिक सुखों में निस्पृह और आपके आत्मा के लिए सस्पृह।
प्रश्नकर्ता : स्पृहा यानी इच्छा?
दादाश्री : स्पृहा यानी एक ही प्रकार की इच्छा नहीं, अनेकों प्रकार की, तरह-तरह के विनाशी सुख भोगने की इच्छाएँ होती हैं, उसे स्पृहा कहा जाता है।
प्रश्नकर्ता : आप भविष्य बता सकते हैं?
दादाश्री : हम ऐसा नहीं कहते, परन्तु आप यदि दुःख में हों, तो आपको संपूर्ण चिंता रहित कर सकते हैं।
'जानी' की परख प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी' को पहचानें किस तरह?
दादाश्री : उन्हें छेड़ो और फुफकारें नहीं तो समझना कि सच्चे ज्ञानी हैं। परीक्षा तो करनी पड़ेगी न? बापजी में क्रोध-मान-माया-लोभ दिखें तो तुरन्त ही दुकान बदल लेना।
प्रश्नकर्ता : ज्ञानी की परीक्षा करें, उसमें अविनय होता है, उन्हें बुरा लगता है और खरे 'ज्ञानी' हों तो दोष भी लगते हैं न?
दादाश्री : यदि खरे ज्ञानी मिले हों तो फिर वे तो आपका कल्याण ही करेंगे, अनुचित हो जाए तो भी कल्याण ही करेंगे। और जो क्रोध से
भर जाएँ, फन फैलाएँ, तो आप उनसे माफी माँगकर, पाँच-पचास के चश्मे देकर खुश कर देना चाहिए। ऐसा करने पर भी शांत नहीं हों तो उनसे कहो कि, 'बापजी, मेरा दिमाग ज़रा चक्रम है। अभी ही घर पर पत्नी के साथ लड़कर आया हूँ', ताकि वे खुश हो जाएँ। कब तक अपना टाइम वहाँ बिगाड़ें?
आप्तवाणी-कैसी क्रियाकारी प्रश्नकर्ता : आपकी आप्तवाणी पढ़ते हुए परिणाम इतना अच्छा आता है कि पढ़ते ही रहें।
दादाश्री : यह 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी है और फिर ताज़ी है। अभी के पर्याय हैं, इसलिए उसे पढ़ते ही अपने सारे पर्याय बदलते जाते हैं, वैसेवैसे आनंद उत्पन्न होता जाता है। ऐसे करते हुए यों ही समकित हो जाए किसीको ! क्योंकि यह वीतरागी वाणी है। राग-द्वेष रहित वाणी हो तो काम होता है, नहीं तो काम नहीं होता। भगवान की वाणी वीतराग थी, उसका असर आज तक चल रहा है। २५०० वर्ष हो चुके हैं, तो भी उसका असर होता है, तो 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी का भी असर होता है, दो-चार पीढ़ी तक तो होता ही है।
वीतराग वाणी के अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है, मोक्ष में जाने के लिए।
प्रश्नकर्ता : आप्तवाणी के दोनों भाग मैंने पढ़े हैं। उसमें कहीं भी किसीका खंडन या टीका नहीं है, पूरी पुस्तक में!
दादाश्री : ऐसा है न, कि समकिती जीव किसीका भी विरोध नहीं करते। उनमें खंडन-मंडन नहीं होता। किसलिए खंडन-मंडन? किसलिए विरोध? विरोध तो एक प्रकार का अहंकार है, वह पागल अहंकार कहलाता
धर्म तो वह कहलाता है कि विखवाद नहीं हो, अमृतवाद हो वह धर्म, विख अर्थात् विष।