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________________ आप्तवाणी-४ (८) तिरस्कार-तरछोड़ तरछोड़, कितना जोखिमवाला? प्रश्नकर्ता : तिरस्कार और तरछोड़, इन दोनों में क्या फ़र्क है? दादाश्री: तिरस्कार तो शायद कभी पता भी नहीं चले। तिरस्कार बिल्कुल 'माइल्ड' (हल्की-फुल्की) वस्तु है, परन्तु तरछोड़ तो बहुत उग्र स्वरूप है, तुरन्त खून निकलता है, इस देह में से खन नहीं निकलता, मन में से खून निकलता है। प्रश्नकर्ता : तिरस्कार और तरछोड के फल कैसे होते हैं? तरछोड़ सभी दरवाजे बंद कर देती है। जिसे हम तरछोड़ मारें, वह कभी भी दरवाजा खोलेगा ही नहीं। प्रश्नकर्ता : तिरस्कार और तरछोड़ हैं, वे जीवन व्यवहार में हर पल अनुभव में आते हैं। दादाश्री: हाँ, हर एक को यही हो रहा है न? जगत् में दुःख ही उसके हैं। उल्टी वाणी तो ऐसी निकलती है, 'अकाल पड़े' ऐसा बोलता दादाश्री : तिरस्कार का फल इतना बड़ा नहीं आता, परन्तु तरछोड़ का बहुत बड़ा आता है। तरछोड़ तमाम प्रकार के अंतराय डालता है। इसलिए वस्तुएँ हमें प्राप्त नहीं होने देता, बिल्कुल परेशान करके रख देता है। तरछोड़ क्या नहीं करता? तरछोड़ से तो सारा जगत् खड़ा रहा है। इसलिए हम एक ही वस्तु कहते हैं कि 'बैर छोड़ो, तरछोड़ नहीं लगे वैसे चलो।' तरछोड़ के लिए हमारा चित्त बहुत जागृत रहता है। देर रात को रास्ते पर से जाना हो, तब हम जागृत होते हैं कि जिससे हमारे जूतों की आवाज़ से कुत्ता नहीं जाग जाए। उसके अंदर भी आत्मा है न? कोई हमें प्रेम से पोइजन दे, तो भी हम उसे तरछोड़ नहीं मारेंगे! वीतराग मार्ग में तो किसीका भी विरोध या तरछोड़ नहीं होता। चोर, डाकू या बदमाश, वीतराग किसीके भी विराधक नहीं होते। उन्हें ऐसा कहें 'तू गलत धंधा लेकर बैठा है' तो उसे तरछोड़ लगेगी और तरछोड़ लगे वहाँ भगवान को नहीं देख सकते। भगवान तो इतना ही कहते हैं कि, 'उसे भी तू तत्त्वदृष्टि से देख। अवस्था दृष्टि से देखेगा तो तेरा ही बिगड़नेवाला है।' हम कीचड़ में पत्थर डालें तो? कीचड़ का क्या बिगड़नेवाला है? कीचड़ तो बिगड़ा हुआ ही है, छटिं हम पर ही उड़ेंगे। इसलिए वीतराग तो बहुत समझदार थे। जीव-मात्र को तरछोड़ नहीं लगे वैसे निकल जाते प्रश्नकर्ता : उल्टी वाणी के तो आजकल राजा होते हैं। दादाश्री : हमें पिछले जन्मों का दिखता है, तब आश्चर्य होता है कि ओहोहो! तरछोड़ का कितना अधिक नुकसान है! इसलिए मजदूरों को भी तरछोड़ नहीं लगे, उस प्रकार आचरण करते हैं। अंत में साँप होकर भी काटते हैं, तरछोड़ बदला लिए बगैर रहता नहीं है। बाहर के घाव तो भर जाएँगे, परन्तु वाणी के घाव तो पूरी ज़िन्दगी नहीं भरते। अरे, कुछ घाव तो सौ-सौ जन्मों तक नहीं भरते हैं! तरछोड़ का उपाय क्या? प्रश्नकर्ता : क्या उपाय करूँ कि जिससे तरछोड़ के परिणाम भुगतने की बारी नहीं आए? दादाश्री : उसके लिए दूसरा कोई उपाय नहीं है, सिर्फ प्रतिक्रमण ही करते रहना है। जब तक सामनेवाले का मन वापस नहीं पलटे, तब तक करना। और प्रत्यक्ष मिल जाएँ, तो फिर वापस मीठा-मीठा बोलकर क्षमा माँग लेना कि, 'भाई, मेरी तो बहुत भूल हो गई, मैं तो मूरख हूँ, बेअक्ल हूँ।' इससे सामनेवाले के घाव भरते जाएँगे। हम अपने आप को बुरा-भला कहें तो सामनेवाले को अच्छा लगता है। तब उसके घाव भर जाते हैं। संसार में सुखी होने की इच्छा हो तो किसीको तरछोड़ मत मारना।
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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