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(६) कुशलता का अँधापन
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आप्तवाणी-४
आ चुकी या नहीं, वह भी नहीं जानते। यह तो सारा पोलम्पोल चलता रहता है!
प्रश्नकर्ता : एक्सपर्ट मतलब?
दादाश्री : मनुष्य एक्सपर्ट नहीं हो सकता। एक्सपर्ट, वह तो कुदरती बख्शिश है। इस आत्मविज्ञान में मैं भी एक्सपर्ट हुआ हूँ, वह भी कुदरती बख्शिश है। नहीं तो मनुष्य ज्ञानी किस तरह बन सकता है? इसलिए हम कहते हैं कि 'दिस इज बट नेचुरल।'
अरे, मुझे तो चलना भी नहीं आता। लोग कहें कि दादा बहुत अच्छा चलते हैं ! पर मैं तो ज्ञानदृष्टि से देखता हूँ, इसलिए मुझे पता चलता है कि मुझे चलना भी नहीं आता।
प्रश्नकर्ता : परन्तु हमें तो आपका सभीकुछ आदर्शरूप ही दिखता
होने के बाद तटस्थ दृष्टि से देखा, लोगों को व्यापार करते हुए देखा तब मैं समझ गया कि यह तो कुछ आता ही नहीं। यह तो इगोइज़म ही है खाली। कुछ पाँच लोग मानें, स्वीकार करें, इसलिए क्या सारी कुशलता आ गई?
प्रश्नकर्ता : आपकी दृष्टि से अबुधता ठीक है, पर व्यवहारिक दृष्टि से?
दादाश्री : 'मैं बुद्ध हूँ' वह भान और यह ज्ञान वह दोनों साथ में रह ही नहीं सकते। हमारे पास ज्ञान का फुल प्रकाश है, इसलिए हमें बुद्धि की ज़रूरत ही नहीं न? बुद्धि इमोशनल करवाती है और ज्ञान मोशन (संतुलन) में रखता है।
हमें संसार विस्मृत हो चुका है। हमें हस्ताक्षर करना भी नहीं आता। पंद्रह-बीस वर्षों से कुछ लिखा ही नहीं इसलिए सब विस्मृत हो गया है। यह संसार अपने आप विस्मृत हो जाए, वैसा है। उसके लिए इतने सारे प्रयोग करने की ज़रूरत नहीं है। परिचय छूटा कि विस्मृत हो गया। यानी परिचय छूट जाना चाहिए। साधारण व्यवहार में हर्ज नहीं है, पर परिचय में हर्ज है।
दादाश्री : वैसा लगता है, पर मैं ज्ञानरूप से देखता हूँ, अंतिम स्थिति के चश्मे से देखता हूँ, इसलिए अंतिम लाइट से यह सब कच्चा लगता है।
कुछ लोग मुझे कहते हैं कि दादा, आपके साथ बैठकर हम भोजन करना सीख गए। अब मैं अपने आप को जानता हैं न कि मझे भोजन करना ही नहीं आता। भोजन करनेवाले का फोटो कैसा होना चाहिए, कैसा चारित्र होना चाहिए, वह हमें लक्ष्य में होता ही है। परन्तु वैसा किसे होता है? बख्शिशवाले को होता है।
एक ओर अहंकार हो और एक ओर एक्सपर्ट होना. वे दोनों साथ में हो ही नहीं सकते। अहंकार ही एक्सपर्ट होने से रोकता है।
सार का खाता परभव से क्या-क्या साथ में लेकर आए हैं? चंदूभाई की ज़रूरत की सारी वस्तुएँ लेकर ही आए हो, मन की ज़रूरत की सारी वस्तुएँ लेकर आए हो, चित्त की ज़रूरत की सारी वस्तुएँ लेकर आए हो, बुद्धि की, अहंकार की ज़रूरत की सारी ही वस्तुएँ लेकर आए हो, अब वे जरूरत की वस्तुएँ कुदरत आपको सप्लाइ करती है और खुद कहता है कि मैं कर रहा हूँ। सब तैयार हो उसमें हमने क्या किया कहलाएगा? जो तैयार नहीं है उसके लिए करना, वह पुरुषार्थ कहलाता है।
यह सारा तो आप तैयार लेकर आए हुए हो : दुकान, ऑफिस, पत्नी, बच्चे सब तैयार सामान लेकर आए हुए हो। यह बहीखाते का हिसाब है।
इसलिए हम अबुध हैं वह अनुभवपूर्वक कह रहे हैं, ऐसे ही नहीं कहते। फिर भी आपको प्रबुध दिखते हैं वह आपकी दृष्टि है। मेरी दृष्टि कहाँ होगी? वह आपको समझ में आया? हमारी चरम दृष्टि है।
व्यापार में भी मैं खुद को एक्सपर्ट मानता था। उसे भी यह ज्ञान