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आप्तवाणी-४
(४) श्रद्धा
अंधश्रद्धा-अज्ञश्रद्धा
एक बड़े फार्म सुप्रिन्टेन्डन्ट थे। वे मुझे कहते हैं कि हम अंधश्रद्धा नहीं रखते। उनकी यह बात हमने नोट कर ली। फिर हम साथ में फार्म में घूम रहे थे। बीच में पचास फुट का खेत आया। उसमें बहुत ऊँची घास थी। उसे पार करते समय वे भाई चार-चार फुट लम्बी छलाँग मारकर पार निकल गए। मैंने उन्हें पूछा, 'इस घास में साँप है या बिच्छू है, वैसा आप जानते नहीं थे तो किस आधार पर आप पैर रख रहे थे?' कैसी जबरदस्त अंधश्रद्धा है!
अंधश्रद्धा के बिना तो खाना भी नहीं खाया जा सकता, स्टीमर में बैठा नहीं जा सकता और टैक्सी में भी नहीं बैठा जा सकता। कौन-सी श्रद्धा से टैक्सी में बैठते हो? एक्सिडेन्ट नहीं होगा उसकी आपको श्रद्धा तो नहीं है! अरे, घर पर पानी पीते हो, तो उसमें छिपकली गिरी या कोई जीवजंतू गिरा या किसी पड़ोसी ने खटमल मारने की दवाई डाल दी है या नहीं, उसकी जाँच करते हो? यानी अंधे विश्वास के बिना तो घडीभर भी चले वैसा नहीं है।
आप जिसे अंधश्रद्धा कहते हो या समझते हो, वह अंधश्रद्धा नहीं है, अज्ञश्रद्धा है। पूरा जगत् अज्ञश्रद्धा में है। छोटा बच्चा गडे-गुड़ियों से खेलता है, वह अज्ञश्रद्धा है, वैसे ही धर्म में भी अज्ञश्रद्धा होती है। सिर्फ स्वयं खुद 'ज्ञानी पुरुष' ही अंधश्रद्धा रहित होते हैं, फिर भी देह अंधश्रद्धा में होता है। अभी हम भी घर जाकर बिना जाँच किए पानी पीएँगे, पर हमें देह
का मालिकीभाव नहीं होता।
आत्मश्रद्धा-प्रभुश्रद्धा प्रश्नकर्ता : आत्मश्रद्धा और प्रभुश्रद्धा, उन दोनों में क्या फर्क है?
दादाश्री : प्रभुश्रद्धा में प्रभु अलग और मैं अलग, ऐसे जुदाई मानी जाती है और आत्मश्रद्धा तो खुद स्वयं आत्मा होकर आत्मा की भक्ति करना, वह। यह प्रत्यक्ष भक्ति और वह परोक्ष भक्ति कहलाती है। जिसे आत्मानुभव नहीं हुआ, वे जिन्हें प्रभु कहते हैं, वे ही उनका आत्मा हैं, परन्तु उसकी उसे खबर नहीं है। इसलिए प्रभु के नाम से आराधना करते हैं, परन्तु परोक्षरूप से उनके ही आत्मा को पहुँचता है।
श्रद्धा-ज्ञान प्रश्नकर्ता : श्रद्धा के बिना ज्ञान हो सकता है या नहीं?
दादाश्री : यह अज्ञान भी श्रद्धा के बिना नहीं होता है। श्रद्धा, वह 'कॉज़ेज़' हैं और ज्ञान 'परिणाम' है।
यह स्वरूपज्ञान होने के बाद कैसा बन जाना चाहिए? श्रद्धा की प्रतिमा बन जाना चाहिए! देखते ही श्रद्धा आए। श्रद्धा की प्रतिमा कभी ही प्रकट होती है!