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(३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ
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आप्तवाणी-४
नापास हुआ, वह भी प्रारब्ध। इन शब्दों पर से नोट करना कि जितने संयोग मिलते हैं वे सारे ही प्रारब्ध हैं। सुबह में उठा गया वह संयोग कहलाता है। साढ़े सात बजे उठा गया तो साढ़े सात का संयोग कहलाता है, वह प्रारब्ध कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : एक व्यक्ति मेरे लिए खराब बोले. मेरे सामने ही बोले और मैं उसके लिए समभाव रखकर पुरुषार्थ करूँ, तो वह वास्तव में प्रारब्ध कहलाएगा या नहीं?
है हमें? निश्चित किया कि जल्दी उठना ही चाहिए, वह पुरुषार्थ है वहाँ पर! और चाय शायद फीकी आए तो मन में निश्चित करना कि मेरे प्रारब्ध के आधार पर चाय फीकी आई। इसलिए किसीका दोष नहीं है। इसलिए विनती करके चीनी माँग लेना, नहीं तो माँगनी ही नहीं ऐसा निश्चित करो। इन दोनों में से एक करो। हमने भाव किया, वह पुरुषार्थ कहलाता है। पर वह 'रिलेटिव' पुरुषार्थ कहलाता है। जब कि 'रियल' पुरुषार्थ किसे कहा जाता है? पारिणामिक भाव जिसे उत्पन्न हुआ उसे 'रियल' पुरुषार्थ कहा जाता है। ये लोग पूरे दिन सामायिक, प्रतिक्रमण, जप-तप, ध्यान, क्रिया ज़रूर करते रहते हैं, पर सब नींद में करते हैं। उसे पुरुषार्थ नहीं कहा जाता। पुरुषार्थ जागता हुआ व्यक्ति करता है या सोता हुआ करता है?
प्रश्नकर्ता : जागता हुआ।
दादाश्री : जगत् तो प्रारब्ध को ही पुरुषार्थ कहता है। कुछ थोड़े, बहुत ही कम लोग जागृत होंगे। तो ऐसे लोग कछ समझते-जानते होंगे कि ऐसा होना चाहिए। बाक़ी, प्रारब्ध-पुरुषार्थ का भेद भी नहीं समझते।
प्रश्नकर्ता : ये सारी भूलें ही कहलाएँगी न?
दादाश्री : वास्तव में वह भूल नहीं हुई है, किसलिए? वह आपको समझाऊँ। प्रारब्ध और पुरुषार्थ के जो भेद पहले के लोगों ने डाले हुए हैं, वे सही कब तक हैं कि जब तक मन-वचन-काया की एकता हो। यानी कि मन में जैसा हो, वैसा ही वाणी में बोले और वैसा ही वर्तन में करे। पर इस काल में मन-वचन-काया की एकता टूट गई है। इसलिए आज प्रारब्ध और पुरुषार्थ के भेद गलत ठहरते हैं। यह कुछ बिल्कुल गलत नहीं है, परन्तु सापेक्ष है।
प्रश्नकर्ता : प्रारब्ध की बात तो समझ में आई, पर पुरुषार्थ की बात ठीक से नहीं समझ में आई।
दादाश्री : संयोग मिले वह प्रारब्ध और संयोग उल्टा आए उस घड़ी समता रखनी, वह पुरुषार्थ है। जो-जो संयोग मिलते हैं, वे सभी प्रारब्ध हैं। आप 'फर्स्ट क्लास' पास हुए, वह भी प्रारब्ध और कोई फर्स्ट क्लास
दादाश्री : नहीं, हम लोगों को संयोग मिलता है वह गलत हो, हमें गालियाँ दे, वहाँ लोग पुरुषार्थ नहीं करते और सामनेवाला गाली दे, मुँह चढ़ाए वैसा करते हैं। कोई आपको गालियाँ दे, उस समय आपको मन में ऐसा हो कि यह मेरे ही कर्मों का फल है, सामनेवाला तो निमित्त है, निर्दोष है। वह भगवान का आज्ञारूपी पुरुषार्थ है। उस घड़ी आप समता रखो, वह पुरुषार्थ है।
प्रश्नकर्ता : जिन्हें सम्यक् दर्शन नहीं हुआ, वैसे जगत् के लोगों के लिए तो यही पुरुषार्थ है।
दादाश्री : हाँ, जगत् के लोगों के लिए वह पुरुषार्थ है। वह कौनसा पुरुषार्थ है? 'रिलेटिव' पुरुषार्थ है। क्योंकि उन्हें संसार में 'रिलेटिव' ज्ञान होता है। कुछ सुनने में आता है, कुछ पुस्तक में पढ़ने में आता है, वह 'रिलेटिव' ज्ञान होता है। वह 'रिलेटिव' ज्ञान का प्रताप बरते उसे 'रिलेटिव' पुरुषार्थ कहा जाता है। यहाँ पर 'रियल' ज्ञान का प्रताप बरतता है, तो 'रियल' पुरुषार्थ कहलाता है, जगत् में कुछ लोग तो पुरुषार्थ करते हैं। बिल्कुल ही कहीं नापाक नहीं हो गए हैं, लगभग हज़ार में से दोतीन लोग निकलेंगे, ऐसे हैं ज़रूर! परन्तु वे खुद पूरा-पूरा समझ नहीं सकते कि इसे प्रारब्ध कहें या पुरुषार्थ कहें! उनसे पुरुषार्थ स्वाभाविक रूप से हो जाता है। पर वह खुद जानता नहीं कि इसमें वह कौन-से 'ग्रेड' की वस्तु है और 'यह' किस 'ग्रेड' की वस्तु है? प्रारब्ध और पुरुषार्थ में तो लोग बस इतना ही जानते हैं कि मुझे बस ग्यारह बजे जाना है, क्यों देर