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(३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ
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आप्तवाणी-४
प्रश्नकर्ता : खाते समय उसे रोकने के लिए क्या करें? उस समय प्रारब्धकर्म या संचित कर्म होता है?
दादाश्री : पिछले जन्म में जो संचित कर्म हों, वे इस भव में प्रारब्ध के रूप में आते हैं, इसलिए यह खाऊँ और वह खाऊँ', रहता है और उसमें फिर खट्टा-तीखा खाता रहता है। इसलिए फिर वाइटालिटी पावर (रोग प्रतिरोधक शक्ति) पर ज़ोर पड़ता है, उससे पाचन नहीं किया जा सकता। इसलिए उस कचरे को एक जगह पर इकट्ठा करता रहता है। इस शरीर में कुछ भाग ऐसे हैं कि जिनमें वाइटालिटी पावर कचरे को फेंकती है। ये डॉक्टर उसे रेज़ (किरणें) से जला देते हैं, या फिर कुछ खास प्रकार की दवाओं से खत्म हो जाता है।
भ्रांत पुरुषार्थ और प्रारब्ध कर्म इस संसार में पुरुषार्थ जिसे मानते हैं, वह पुरुषार्थ है ही नहीं। अब इतनी बड़ी भूल हिन्दुस्तान में चले, सभी जगह चले, तो लोगों की क्या दशा होगी? 'पुरुषार्थ और प्रारब्ध' के भेद 'ज्ञानी पुरुष' के पास से समझ लेने चाहिए।
अपने लोग किसे पुरुषार्थ मानते हैं? सुबह उठा, वह जल्दी उठा' उसे पुरुषार्थ कहते हैं, 'कल देर हो गई और आज जल्दी उठा' ऐसा कहता है। फिर चाय पी ली, फिर संडास जाकर आया, नहाया-धोया और झट व्यापार के लिए चला। और व्यापार में पूरा दिन बैठा रहा, उसे पुरुषार्थ कहता है। पर वह तो प्रारब्ध है। टेन्डर भरा, फलाना किया, त्रिकम साहब से मिल आया, फलानी जगह पर जाकर आया, यह सभी प्रारब्ध है। भागदौड़ करता है, दुकान खोलता है, वह भी प्रारब्ध है। बोलो अब, यह पब्लिक क्या समझती होगी प्रारब्ध को? जो प्रारब्ध है न उसे ही पुरुषार्थ कहती है, तो बोलो अब पुरुषार्थ कब होता होगा? समझने जैसी बात है न! 'ज्ञानी पुरुष' के पास से प्रारब्ध और पुरुषार्थ का भेद समझ लें तो हल आए।
इस ज्ञान के बाद प्रारब्ध-पुरुषार्थ 'आपको' नहीं रहते है। आप
आत्मस्वरूप हो गए इसलिए बिल्कुल 'व्यवस्थित' ही है। जगत् के लोगों के लिए जगत् 'व्यवस्थित' नहीं है। क्योंकि वह खुद भ्रांतिस्वरूप में है, इसलिए वह दखल किए बगैर रहता नहीं है। अभी चाय देर से आई हो तो आप 'व्यवस्थित' समझ जाते हो और समभाव से निकाल (निपटारा) करके हल लाते हो, पर दखल नहीं करते हो और वह क्या करेगा?
प्रश्नकर्ता : शोर मचा देगा।
दादाश्री : हम लोग तो पुरुष बने हैं, इसलिए पुरुषार्थ है। परन्तु जगत् के लोगों को बिना पुरुषार्थ की भूमिका नहीं होती है न? वह भ्रांत पुरुषार्थ कहलाता है, वह भी पुरुषार्थ है। पर वह भी जानना चाहिए न? भ्रांत पुरुषार्थ से क्रमिक मार्ग में आगे बढ़ते हैं, मोक्ष की ओर। अब जगत् के लोग कहेंगे कि, 'यह दुकान खूब आगे बढ़ाई, व्यापार खूब जमाया, मैं पढ़ा, मैं पहले नंबर से पास होता हूँ।' उसे ही पुरुषार्थ कहते हैं, पर वह सब प्रारब्ध है। भूल सुधारनी पड़ेगी या नहीं सुधारनी पड़ेगी?
प्रश्नकर्ता : सुधारनी पड़ेगी।
दादाश्री : आप नहीं सुधारो तो चलेगा। क्योंकि आपको तो 'व्यवस्थित' हाथ में आ गया है न! पर लोग तो कब समझेंगे यह?!
पुरुषार्थ कौन-सा करें? सबकुछ ही प्रारब्ध है, तो पुरुषार्थ क्या होगा? वैसा कछ समझने का विचार आता है आपको?
प्रश्नकर्ता : खयाल नहीं आता।
दादाश्री : कल रात को आपने निश्चित किया कि सुबह जल्दी उठना है और देर से उठा गया आपसे, तब दूसरे लोगों को ऐसा नहीं कहना कि, 'आप सब जानते थे कि मुझे गाड़ी से जाना है, क्यों जल्दी नहीं उठाया?' ऐसी कलह करने की ज़रूरत नहीं है। हमने लोगों से जल्दी उठाने को कहा होता तो भी वह उस समय भूल गया होता। हमें कलह करने की कोई जरूरत है? देर से उठा गया, वही प्रारब्ध है। अब पुरुषार्थ क्या करना