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(३७) क्रियाशक्ति : भावशक्ति
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आप्तवाणी-४
है कि 'साहब नालायक है, ऐसा है, वैसा है।' अब उसका फल क्या आएगा, वह जानता नहीं है। इसलिए यह भाव बदल डालो, प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। उसे हम जागृति कहते हैं।
अर्थात् वह किसके जैसा है? कोई आलसी किसान हो और खेत में गया ही नहीं हो और बीज ही नहीं डाले हों, तो फिर बरसात क्या करेगी? बरसात हो जाएगी और किसान को कुछ भी फायदा नहीं मिलेगा? और दूसरे किसान ने बीज डाल रखे होंगे तो बरसात होते ही तुरन्त सब उग निकलेगा।
किसी भी देहधारी के लिए टेढ़ा-मेढ़ा बोलें, वह टेप हो ही जाता है। कोई थोडा-सा भी छेड़े तो प्रतिपक्षी भाव का रिकॉर्ड बजे बगैर रहता ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : भाव में भी नहीं आना चाहिए न?
दादाश्री : आप किसीको छेड़ो तो सामनेवाले को प्रतिपक्षी भाव उत्पन्न हुए बगैर रहेंगे ही नहीं। सामनेवाला बलवान नहीं हो, तो बोलेगा नहीं, परन्तु मन में तो होगा न? आप बोलना बंद करो तो सामनेवाले के भाव बंद हो जाएंगे फिर।
हमें किन्हीं भी संयोगों में प्रतिपक्षी भाव उत्पन्न नहीं होते। कभी न कभी उस स्टेज में आए बगैर चारा नहीं है।
प्रश्नकर्ता : उसका एक ही भाव होता है, भाव बदला ही नहीं होता, फिर भी संयोग उसे नहीं मिलें, तब उसका भाव नष्ट हो जाता है?
दादाश्री : हाँ, ऐसा भी होता है! ऐसा किसी समय ही होता है। वह भाव पूर्वभव का कच्चा भाव कहलाता है, डगमग भाव कहलाता है। नहीं तो ऐसा होता नहीं है। जैसे सड़ा हुआ बीज डालें लेकिन कुछ उगता नहीं, वैसे ही कच्चे भाव में होते हैं। उसका हमें पता चलता है। वह डगमगवाला भाव होता है। 'बीज डालूं या नहीं डालूँ? बीज डालूँ या नहीं डालूँ?' ऐसा होता रहता है। वैसा कभी ही होता है।
और यह तो मूल वस्तु कही कि हमें अपना भाव रख देना है, तो उसके अनुसार सब मिल जाएगा। हमें दुकान लगानी हो तो नक्की करके रखना चाहिए कि मुझे दुकान लगानी है। फिर संयोग आज, नहीं तो छह महीनों बाद भी मिल आएँगे। परन्तु हमें तैयारी रखनी है, भाव तैयार रखना है। और दूसरा सब 'व्यवस्थित' की सत्ता में है।
हमारी आँखों में दूसरे कोई भाव नहीं दिखते, इसलिए लोग दर्शन करते हैं। किसी भी तरह का खराब भाव आँखों में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। तब उन आँखों को देखते ही समाधि का अनुभव होता है! जिसे कुछ चाहिए हो - मान-तान-क्रोध-लोभ-मोह, तो उन्हें देखकर उल्लास नहीं आता।
भाव का फॉर्म
आपका भाव हाज़िर रहना चाहिए। फिर दूसरे सारे एविडेन्स इकट्ठे हो जाएँगे। आप भाव हाज़िर नहीं रखते हैं, उसके कारण कुछ एविडेन्स बेकार चले जाते हैं।
आपको विवाह करना हो तो विवाह करने के भाव हाज़िर रखना। और विवाह नहीं करना हो तो नहीं करने के भाव हाज़िर रखना। जैसे भाव हाज़िर रखोगे, वैसे संयोग इकट्ठे हो जाएंगे, क्योंकि भाव की हाजिरी वह 'वन ऑफ द एविडेन्स' (अनेक संयोगों में से एक संयोग) है।
नया भाव हमें उत्पन्न नहीं करना है। नया भाव तो आत्मा को होता ही नहीं है न! आत्मा प्राप्त करने के बाद हमारे भावकर्म बंद हो जाते हैं। ये तो पिछले भाव कि जिन्हें भूतभाव कहा जाता है, भूतभाव आते हैं और कार्य हो जाता है और उसका हम निकाल कर देते हैं। और भावि भाव तो हम करते नहीं हैं। वर्तमान भाव तो अपना 'स्वभाव' रहता है, वह है! इन्द्रियज्ञान सभी भावनाएँ उत्पन्न करता है और अतिन्द्रियज्ञान भावना उत्पन्न नहीं करता, शुद्धात्मा भावना उत्पन्न नहीं करता।
भाव ही मुख्य एविडेन्स अज्ञान दशा में भावस्वरूप आत्मा है, भावात्मा है। और ज्ञानदशा में