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(३७) क्रियाशक्ति : भावशक्ति
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आप्तवाणी-४
भगवान के दर्शन करने जाएँ तो दर्शन के साथ में जूतों के और दुकान के भी दर्शन करते हैं! द्रव्य भगवान की तरफ और भाव जूतों में या दुकान में भगवान क्या कहते हैं कि द्रव्य के अनुसार तेरा भाव नहीं है तो तूने धर्म किया ही नहीं और 'मैं धर्म करता हूँ' ऐसा मानना, वह प्रपंच किया कहलाएगा। उससे भारी अधोगति में जाएगा। वीतराग के मार्ग में किसीकी इतना-सा भी घोटाला नहीं चलता।
भाव की तो क़ीमत है। अभी भावपूर्वक होता ही नहीं न? पकौड़ियाँ बनाई, परन्तु भावपूर्वक बनाए हुए की क़ीमत ऊँची है। लोगों को भी भाव पहचानना नहीं आता है। ये तो अभावपूर्वक अच्छा भोजन दें तो टेस्टपूर्वक खाते हैं। और भावपूर्वक रोटी दी हो तो मुँह बिगाड़ते हैं। वास्तव में भावपूर्वक दी गई रोटी हो तो पानी के साथ खा लेनी चाहिए। हम तो भावपूर्वक जहर दें तो भी पी जाए! क़ीमत भाव की है। भावपूर्वक व्यवहार चले तो सतयुग ही है। सेठ-नौकर भावपूर्वक रहें तो कितना संदर लगता है! भाव तो रहा ही नहीं। अरे, ये मंत्र भी भावपूर्वक बोले तो चिंता नहीं हो, ऐसा है। भावक्रिया, वह जीवंत क्रिया है, भले ही फिर वह निश्चेतन चेतन की हो। और अभाव क्रिया, वह मृत क्रिया है।
किसीको भोजन करवाएँ, इन जैन साधुओं को भोजन दें तो भावपूर्वक देना चाहिए। कुछ तो महाराज को भावपूर्वक देते भी नहीं हैं। महाराज तो वीतराग भगवान के मार्गवाले हैं। उनका तो ध्यान रखना चाहिए न! भीतर आत्मा है। वे तुरन्त ही समझ जाते हैं कि यह भाव से दे रहा है, विनय से दे रहा है या नहीं? आपके घर सहूलियत नहीं हो तो अतिथि को रोटी और सब्जी खिलाना, परन्तु भाव मत बिगाड़ना। व्यवहार तो ऊँचा होना चाहिए न? क्रमिक मार्ग में इस भाव की ही क़ीमत ऊँची मानी जाती
दें, इस तरह से जीना बहुत मुश्किल है।
दादाश्री : मुश्किल है इसलिए ऐसा नहीं कह सकते कि दुःख देकर ही मुझे जीना है। फिर भी आपको तो भावना ऐसी ही रखनी चाहिए कि मुझे किसीको दु:ख नहीं देना है। हम भावना के लिए ही जिम्मेदार हैं, क्रिया के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।
प्रतिपक्षी भाव पूरा जगत् प्रतिपक्षी भाव से कर्म बाँधता है। स्वरूपज्ञानी को प्रतिपक्षी भाव नहीं होते। असर होता है, परन्तु कर्म नहीं बंधते! और जब पराक्रम खड़ा हो, तब तो असर भी नहीं होता। असर में क्या होता है कि कोई गालियाँ दे तो 'यह मुझे ऐसा बोला ही क्यों?' ऐसा होता है। परन्तु पराक्रम क्या कहता है कि, 'तेरी भूल होगी इसलिए ही वह कहता है और नुकसान हुआ, वह व्यापार करना नहीं आता है इसलिए।' इस तरह, स्वयं खुद के साथ ही बातचीत करे तो खुद से पहचान होती है, परिचय होता है, 'खद' की गद्दी पर, शुद्धात्मा की गद्दी पर बैठने का परिचय होता है। यह तो गद्दी पर से तुरन्त ही उठ जाता है! वह अनादिकाल का परिचय है इसलिए और भुगतना अभी बाकी है इसलिए!!
अपनी भूल से, पाप जागें तब यह पंखा चल रहा है, वह आप पर गिर पड़ता है। हिसाब आपका ही है!
मन बिगाड़ना किसे कहा जाएगा? सिर्फ मन नहीं बिगड़ता, पूरा अंत:करण बिगड़ता है। पूरी पार्लियामेन्ट का प्रस्ताव पास हो, तब प्रतिपक्षी भाव उत्पन्न होता है। 'सामनेवाले को ऐसा कर डालूँ, वैसा कर डालूँ' ऐसा होता है। यह सिर्फ मन के कारण ही नहीं है। मन तो ज्ञेय है, वीतरागी स्वभाव का है। मन बिगड़ जाए तो प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। अंत:करण की पार्लियामेन्ट का प्रस्ताव हो जाना और मन बिगड़ जाना, ये दोनों अलग वस्तुएँ हैं।
ऑफिस में परमिट लेने गए, पर साहब ने नहीं दिया तो मन में होता
'हमसे किसी भी जीव को किंचित् मात्र दु:ख नहीं हो।' इतना ही वाक्य समझ गया न, तो बहुत हो गया।
प्रश्नकर्ता : जब तक शरीर है तब तक किसी जीव को दु:ख नहीं