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आप्तवाणी-४
हो गए हैं और कुछ जगहों पर तो वीरान (गंजापन) हो गया है! खुद के हाथ में सत्ता ही नहीं है। एक दाढ़ दुखती हो न, तो शोर मचा देता है!
भाव के अनुसार फल आता है।
(३७) क्रियाशक्ति : भावशक्ति
क्रियाशक्ति, परसत्ता अधीन दादाश्री : अभी तो सौ एक जन्म लेने हैं या मोक्ष में जाना है जल्दी से? तो 'ज्ञानी पुरुष' वैसी चिट्ठी लिख दें। वे चाहे सो करें, क्योंकि वे किसी चीज के कर्ता नहीं होते हैं। 'ज्ञानी पुरुष' मोक्षदाता कहलाते हैं।
प्रश्नकर्ता : वे तो रास्ता दिखाते हैं, परन्तु फिर करना तो हमें ही है न?
दादाश्री : क्रियाशक्ति खुद के हाथ में नहीं है। सिर्फ भावशक्ति ही खुद के हाथ में है। बहुत हुआ तो हम ऐसा कर सकते हैं कि मुझे दादा की आज्ञा का पालन करना है, वैसा भाव किया जा सकता है। दूसरा कुछ नहीं किया जा सकता। सिर्फ एक भावशक्ति ही काम में लेने की छूट है। ये तो कहेंगे, 'मैं सूरत जाकर आया।' अरे, गाड़ी सूरत गई या तू गया? फिर कहता है, 'मैं थक गया!' अब गाड़ी सूरत गई और सूरत आया और मैं उतर गया, ऐसा बोले तो थकान भी नहीं लगेगी। मैं करता हूँ', वह भ्रांति है। कर्त्तापद, वह भ्रांतिपद है, ऐसा आपको कभी समझ में नहीं आया है?
प्रश्नकर्ता : समझ में नहीं आया।
दादाश्री : कर्त्तापद पूरा ही भ्रांतिपद है। यदि कर्त्तापद कभी होता न तो दाढ़ी वगैरह भी मन को अच्छा लगे, वैसा किया होता। सिर पर तो गंजापन होने ही नहीं देता न कोई फिर? सिर पर 'माथे-रान' होने देते. अर्थात सिर में जंगल जैसे बाल होने देते, परन्तु यह तो रान (जंगल) भी
हमारे हाथ में एकमात्र भाव करने के अलावा दूसरी कोई ताकत नहीं है। हमारा भाव भी व्यक्त नहीं होना चाहिए। भाव किया तो उसके पीछे अहंकार है ही। सिर्फ खुद के मोक्ष में जाने के अलावा अन्य किसी भी प्रकार का अहंकार करने जैसा नहीं है। जगतकल्याण का भी अहंकार करने जैसा नहीं है। सभी निमित्त हैं। कोई कर्ता नहीं है। निमित्त किसलिए कहलाते हैं? ये निमित्त किस तरह बन जाते हैं? कोई भाव करे कि 'मुझे सबको सीधा करना है' तो उसका भाव नेचर में जमा हो जाता है, नोट हो जाता है, फिर जब नेचर को सीधा करने का समय आए तब उस भाववाले निमित्त के पास नेचर सारे संयोग इकट्ठे कर देता है। और उस भाववाले मनुष्य का, उस भाव के अनुसार सब हो जाता है।
जगत् भाव और अभाव करता ही रहता है। भाव-अभाव ही रागद्वेष है। हम स्वरूपज्ञान देते हैं, उसके बाद आपको भावाभाव नहीं होते, दोनों हम बंद कर देते हैं। परन्तु जब पहले का भाव फूटे तब होता है कि यह भाव क्यों हो रहा है? वास्तव में वह भाव नहीं है। वह इच्छा है।
भाव-इच्छा, फर्क क्या? प्रश्नकर्ता : भाव किसे कहेंगे?
दादाश्री : वास्तविक भाव किसे कहते हैं? यह दिखता है वह नहीं, भीतर योजनाएँ गढ़ी जाती हैं, वे हैं और वे दूसरे जन्म में रूपक में आती हैं। भाव से योजनाएँ गढ़ी जाती हैं, परन्तु स्वयं को उसका पता नहीं चलता।
प्रश्नकर्ता : इच्छा क्या है? मनुष्य को इच्छा क्यों होती है?
दादाश्री : इच्छा तो ज्वार में बाली आए उसके जैसी वस्तु है। बीज डल गया हो तभी ऐसा होता है। जिस चीज़ का भाव हो हमें, उसकी इच्छा