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________________ (३६) भाव, भाव्य और भावक २७७ २७८ आप्तवाणी-४ तो अनुबंध उदय में आता जरूर है, परन्तु (कर्म)बंध डाले बगैर निर्जरा हो जाती है। हम 'ज्ञान' देते हैं, उसके बाद भीतर 'चेतक' बैठा देते हैं। मात्र आपको अब उसे मजबूत कर लेना है। 'विषय में सुख है', वहाँ चेतक की जरूरत है। जिस तरह पुलिसवाला जबरदस्ती मार-पीटकर करवाए उस तरह विषय का आराधन होना चाहिए। उतना इस चेतक को मजबूत कर लेना है। तभी वह उसका विरोध करेगा। नहीं तो चेतक शक्तिहीन हो जाएगा। ये 'क' तो बहुत बलवान होते हैं। संसार में फँसने का समय आए तो चेतक चेतावनी देता है! स्वरूपज्ञान मिलने के बाद अंदर आलोचना, प्रतिक्रमण, चेतक वगैरह के नये केन्द्र स्थापित होते हैं और 'क' की वंशावली के केन्द्र सिमटने लगते अलग है और यह शब्द अलग है। जैसे भावक, चेतक हैं, वैसे ही व्यापक है। आत्मा व्याप्य है और ये भीतर व्यापक भरे पड़े हैं। वे व्यापक आत्मा को व्याप्य करवाते हैं। भीतर बहुत तरह के व्यापक बैठे हुए हैं। व्यापक अर्थात् व्यापकता करनेवाले और व्याप्य अर्थात् जैसे यहाँ पर इस घड़े में लाइट हो और उसे बाहर निकाले तो वह बाहर व्याप्य हो जाती है। जितनी जगह मिले उतनी जगह में वह व्याप्य हो जाती है। स्कोप मिलना चाहिए। और व्यापक का अर्थ क्या है? सभी में, जीव-मात्र में व्यापक की तरह रहा हुआ है। वह व्यक्त होने के बाद, स्वरूपज्ञान होने के बाद व्याप्य की तरह रहता है। वास्तव में आत्मा व्याप्य की तरह ही है, परन्तु भक्त तो व्यापक बोलें, तभी काम होगा। प्रमेय-प्रमाता आत्मा प्रमाता है। जब कि प्रमेय का अर्थ क्या? कि इन मजदूरों का प्रमेय कितना? तब कहे, उनका मेन्टेनन्स (खर्चा) हो जाए, बाल-बच्चों की पढ़ाई हो जाए, उतना। अर्थात् कि थोड़ा-बहुत पढ़ाई का भाव और थोड़ा-बहुत संसार का भाव। उतना उसका प्रमेय होता है और इतने भाग में उसका आत्मा प्रमाता की तरह रहता है। प्रमेय के अनुसार प्रमाता होता है। ऐसा करते-करते प्रमेय बढ़ते-बढ़ते सेठ को दस बंगले, मिलें, गाड़ियाँ, पैसे वगैरह का संसारभाव बढ़ता जाए, वैसे-वैसे उसका प्रमेय बड़ा हो गया कहा जाएगा, वैसे-वैसे उसका प्रमाता बढ़ता है। अंत में, वास्तव में प्रमाता किसे कहा जाता है? पूरे ब्रह्मांड में आत्मा प्रकाशमान हो, तब वह वास्तविक प्रमाता कहा जाता है। प्रमेय पूरा ब्रह्मांड है। प्रमेय भाग कितना है? लोक विभाग है उतना ही, अलोक विभाग नहीं। वह अलोक में प्रमाता नहीं है। आत्मा प्रमेय के अनुसार प्रमाता बनता है। व्यापक-व्याप्य प्रश्नकर्ता : यह समझाइए, "व्यापक ने 'व्यवस्थित' खोळे छे, दिव्यचक्षु एनी ल्हाणी माणे छ।" - नवनीत। दादाश्री : कविराज क्या कहते हैं कि व्यापक को 'व्यवस्थित' ढूंढ रहा है ! पूरे जगत् को 'व्यवस्थित' ही चलाता है और निरंतर 'व्यवस्थित' ही रखता है। उसे कोई बदल नहीं सकता। और 'व्यवस्थित' कभी भी अव्यवस्थित नहीं करता है। यह तो बड़ी रकम को बड़ी रकम से भाग देते हैं। ऐसा दिखता है कि, 'यह खुद का ही बेटा इतनी अधिक शरारतनुकसान किसलिए करता होगा?' अरे, जितनी वजनदार तेरी रकम होगी, उतनी रकम से भाग होगा न? छोटी रकम का छोटी रकम से और बड़ी रकम का बड़ी रकम से भाग होता है, परन्तु भाग होता है। प्रश्नकर्ता : व्यापक यानी ईश्वर? दादाश्री : यहाँ पद में व्यापक का अर्थ अलग है। सर्वव्यापक शब्द
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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