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(३५) कर्म की थियरी
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दादाश्री शुभ कर्म आए तब हमें मिठास लगती है, शांति लगती है, वातावरण शांत लगता है, और अशुभ कर्म आए तब कड़वाहट उत्पन्न होती है, मन को चैन नहीं पड़ता। अशुभ कर्म तपा देता है और शुभ कर्म हृदय को आनंद देता है।
प्रश्नकर्ता: बहुत बार ऐसा होता है कि हम अशुभ कर्म बाँध रहे होते हैं और उस समय बाहर का उदय है वह शुभ कर्म का होता है ! दादाश्री : हाँ, वैसा हो सकता है। अभी आपको शुभकर्मों का उदय हो, परन्तु भीतर अशुभ कर्म बंध रहे हों !
है?
स्थूल कर्म सूक्ष्म कर्म
प्रश्नकर्ता: यह कर्म नया है या पुराना है, वह किस तरह दिखता
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दादाश्री : कर्म किया या नहीं किया, वह तो किसीसे भी नहीं देखा जा सकता। वह तो भगवान कि जिन्हें केवलज्ञान है, वे ही जान सकते हैं। इस जगत् में आपको जो कर्म दिखते हैं, उनमें एक राई जितना भी कर्म नया नहीं है। इन कर्मों के ज्ञाता दृष्टा रहो तो नया कर्म नहीं बंधेगा और तन्मयाकार रहो तो नये कर्म बंधेंगे, आत्मज्ञानी होने के बाद ही कर्म नहीं बंधते हैं।
इस कलियुग में जो भी उपचार किए जाते हैं वे उपचार, दवाइयाँ गलत हैं। एक मनुष्य दान देता रहता है, धर्म की भक्ति करता रहता है, मंदिर में पैसे देता है, पूरे दिन ऐसा सबकुछ करता रहता है उसे, जगत् के लोग क्या कहते हैं कि, 'यह धर्मनिष्ठ है।' अब उस मनुष्य के अंदर क्या विचार होते हैं कि, 'किस तरह इकट्ठा करूँ और किस तरह भुगत 'लूँ।' अंदर तो उसे अणहक्क का छीन लेने की इच्छा होती है। इस कलियुग में लोगों को अणहक्क का छीनने की बहुत इच्छा रहती है। अणहक्क का भोग लेने के लिए लोग तैयार होते हैं! अब बाहर तो बड़े-बड़े दान दे रहा होता है, धर्म के ही आचार कर रहा होता है, परन्तु भीतर अणहक्क की लक्ष्मी और विषय भोग लेने का विचार कर रहा होता है, इसलिए
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आप्तवाणी-४
भगवान उसका एक पैसा भी जमा नहीं करते। उसका क्या कारण है? कारण यह है कि वे सभी स्थूलकर्म हैं। बाहर जो दिखते हैं, आचार में जो दिखते हैं, वे सभी स्थूलकर्म हैं। और उन स्थूल कर्मों का फल यहीं के यहीं मिल जाता है। लोग इस स्थूलकर्म को ही अगले जन्म के कर्म मानते हैं। परन्तु उसका फल तो यहीं के यहीं मिल जाता है। और सूक्ष्मकर्म, कि जो अंदर बंध रहा है, जिसकी लोगों को खबर ही नहीं, उसका फल अगले जन्म में मिलता है।
आज किसी व्यक्ति ने चोरी की, तो वह चोरी स्थूलकर्म है। उसे इसका फल इसी जन्म में मिल जाता है। जैसे कि उसे अपयश मिलता है, पुलिसवाला मारता है, ये सब फल उसे यहीं के यहीं मिल ही जाएगा। ये दानेश्वरी दान देते हैं, तो लोग उसकी कीर्ति गाते रहते हैं कि 'वाह ! बड़े दानेश्वरी सेठ हैं!' और सेठ तो अंदर 'मुर्गे' मार रहा होता है! अंदर अर्थात् सूक्ष्मकर्म करते हैं वह । यानी यह जो स्थूल कर्म दिखते हैं, स्थूल आचार दिखता है, वह 'वहाँ' काम में नहीं आता। 'वहाँ' तो 'सूक्ष्म' विचार क्या है ? सूक्ष्मकर्म क्या है, उतना ही 'वहाँ' काम में आता है। अब पूरा जगत् स्थूलकर्म पर ही एडजस्ट हो गया है। ये साधु, संन्यासी, सभी त्याग करते हैं, तप करते हैं, जप करते हैं, परन्तु वह तो सारा स्थूलकर्म है। उसमें सूक्ष्मकर्म कहाँ है? अगले जन्म के लिए सूक्ष्मकर्म उसमें नहीं है। ये जो करते हैं, उन सूक्ष्मकर्म का यश उन्हें यहाँ पर ही मिल जाता है। आचार्य महाराज प्रतिक्रमण करते हैं, सामायिक करते हैं, व्याख्यान देते हैं, प्रवचन करते हैं, पर वह तो उनका आचार है, वह स्थूल कर्म है। पर भीतर क्या है, वह देखना है। भीतर जो चार्ज होता है, वह 'वहाँ' पर काम आएगा। अभी जिस आचार का पालन करते हैं, वह डिस्चार्ज है। पूरा बाह्याचार ही डिस्चार्ज स्वरूप है। वहाँ ये लोग कहते हैं कि, 'मैंने सामायिक की, ध्यान किया, दान दिया।' तो तुझे उसका यश यहीं पर मिल जाएगा। उसमें अगले भव का क्या लेना-देना? भगवान ऐसी कोई कच्ची माया नहीं हैं कि तेरे ऐसे घोटाले को चलने दें। बाहर सामायिक करता है और भीतर जाने क्या करता है। एक सेठ सामायिक करने बैठे थे, तो बाहर किसीने दरवाज़ा खटखटाया, सेठानी ने जाकर दरवाज़ा खोला। एक भाई आए थे, उन्होंने