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आप्तवाणी-४
(३५) कर्म की थियरी आत्मा की हाजिरी चाहिए। आत्मा की हाजिरी से जो अहंकार खड़ा होता है, वही काम करता है। यदि इगोइजम फ्रेक्चर हो गया तो खत्म हो गया। यह अहंकार कर्म बाँधता है और कुदरत छड़वाती है। टाइमिंग मिलता है, दूसरे एविडेन्सिस मिलते हैं, तब कुदरत वे कर्म छड़वाती है। वे कर्म जब छूटते हैं, तब इगोइजम उन्हें भुगतता है और वापिस वह नया कर्म बाँधता
वह अहंकार कौन निकाले? प्रश्नकर्ता : यानी आप ऐसा कहना चाहते हैं कि आत्मा पदगल के द्वारा कर्म बांधता है और पुद्गल के द्वारा कर्म छोड़ता है?
दादाश्री : नहीं, वैसा नहीं है। आत्मा तो इसमें हाथ डालता ही नहीं है। वास्तव में तो आत्मा मुक्त ही है, स्वतंत्र है। आत्मा के विशेषभाव से ही यह अहंकार खड़ा होता है और वह कर्म बांधता है और वही कर्म भुगतता है। आप हो शुद्धात्मा' परन्तु बोलते हो कि 'मैं चंदूभाई हूँ।' जहाँ खुद नहीं है, वहाँ आरोप करना कि 'मैं हूँ', वह अहंकार कहलाता है। पराये के स्थान को खुद का स्थान मानता है, वह इगोइजम है। यह अहंकार छूटे तो खुद के स्थान में आया जा सकता है।
प्रश्नकर्ता : अहंकार खुद के प्रयत्न से छूटता है या कुदरती रूप से छूटता है?
दादाश्री : संपूर्ण नहीं छूटता। स्वप्रयत्न से कुछ हद तक छूट सकता है। जैसे कपड़ों में से मैल निकालने के लिए साबुन से धोएँ, तब साबुन उसका मैल छोड़ता जाता है। साबुन का मैल निकालने के लिए टीनोपोल डालो तो टीनोपोल अपना मैल छोड़ता जाता है, परन्तु अंतिम मैल अपने आप नहीं छूट सकता। अंतिम मैल निकालने के लिए 'ज्ञानी पुरुष' चाहिए। तब तक कुदरती रूप से टकरा-टकराकर अहंकार टूटता जाता है।
अज्ञान, वहाँ अविरत कर्मबंधन। प्रश्नकर्ता : हम तो अभी प्रति क्षण कर्म बाँधते जा रहे हैं न?
दादाश्री : प्रतिक्षण ही नहीं, रात को नींद में भी कर्म बाँधते हो। दिन में तो मानते हो कि मैं कर्म बाँध रहा हूँ, परन्तु रात को भी बाँधते हो। क्योंकि नींद में भी 'मैं चंदूलाल हूँ' वह भूला नहीं जाता।
ज्ञान, वहाँ कर्मबंधन ही नहीं प्रश्नकर्ता : कर्म नहीं बंधे उसका रास्ता क्या है?
दादाश्री : स्वभाव भाव में आ जाना वह। 'ज्ञानी पुरुष' खुद के स्वरूप का भान करवा दें, फिर कर्म नहीं बंधते। फिर नये कर्म चार्ज नहीं होते, पुराने डिस्चार्ज होते रहते हैं।
प्रश्नकर्ता : शरीर का खाने-पीने का जो धर्म है, उसमें जो कर्म बंध रहे हैं, वे किस तरह छूटेंगे?
दादाश्री : स्वरूपज्ञान के बाद कर्म बंधते ही नहीं। फिर खाओपीओ, घूमो, चश्मे लगाओ फिर भी नहीं बंधते।
प्रश्नकर्ता : खाने-पीने में जीवों की हिंसा होती है न?
दादाश्री : जब तक खुद हिंसक है, तब तक हर एक क्रिया में हिंसा रही हुई है। मैं चंदूलाल हूँ, वह आरोपित भाव है, वही हिंसक भाव है। और जब स्वयं आत्मा हो गया, तब फिर अहिंसक हुआ, उसके बाद उसे हिंसा का दोष नहीं लगता। यह तो स्वरूप का भान ही नहीं है, इसलिए निरी हिंसा ही है। मात्र दृष्टि बदलनी है।
प्रायश्चित से हल्के कर्म बंधते हैं प्रश्नकर्ता : हम हृदय से अहिंसक हों फिर भी शरीर के धर्म. फर्ज पूरे करते जाएँ तो कर्म नहीं बंधते ऐसा आपका कहना है?
दादाश्री : नहीं, वे तो बंधते हैं। जब तक आपमें आरोपित भाव है कि 'मैं चंदूलाल हूँ' और आपके मन में भाव है कि 'मुझे हिंसा नहीं करनी है।' फिर भी हो जाती है तो उसका फल जरूर मिलता है, परन्तु कैसा मिलता है? आपको छोटा पत्थर लगकर कर्म पूरा हो जाता है। और