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________________ (३४) लगाम छोड़ दो २४० आप्तवाणी-४ ये सब बेटरियाँ ही हैं। ये तीनों बेटरियाँ खत्म होती जाती हैं और नई बेटरियाँ बनती जाती हैं। मैं चंदूलाल हूँ', वैसा आरोपित भाव है, तब तक अज्ञान के कारण बेटरियाँ बनती रहती हैं और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वह भान है इसलिए हमें नई बेटरियाँ चार्ज नहीं होतीं। पुरानी तो डिस्चार्ज होती ही रहेंगी हर एक की, अज्ञानी की, ज्ञानी की, जानवरों की - सभी की डिस्चार्ज होती ही रहेंगी। उस डिस्चार्ज में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। डिस्चार्ज स्वभाव अर्थात् अपने आप डिस्चार्ज होता ही रहता है सारा। आप कहो, नक्की करो कि हाथ नहीं हिलाना है परन्तु हाथ हिल जाता है, क्योंकि ये सब मशीनरियाँ डिस्चार्ज हो रही हैं। अब ये लोग डिस्चार्ज को बदलने जाते हैं, वह किस तरह से होगा? शायद चार्ज होते समय चार्ज को बदला जा सकता है। यह डिस्चार्ज हमारी इच्छा के अनुसार होता है, तब लोगों का अहंकार चढ़ जाता है कि मेरी इच्छानुसार ही सबकुछ होता है और फिर खुद की इच्छा के विरुद्ध हो तब फिर कहता है कि भगवान ने मुझे ऐसा किया, मेरे कर्म खराब हैं।' सबकुछ उल्टा-सीधा बोलता रहता है। इच्छा के अनुसार हो जाए वह भी डिस्चार्ज है, इच्छा नहीं हो वह भी डिस्चार्ज है। उसका स्वभाव, वह डिस्चार्ज को बताता है। इसमें दो प्रकार से होता है - एक पसंद हो वैसा और एक पसंद नहीं हो वैसा होता है। इसमें से दुनिया को राग-द्वेष खड़े होते हैं। अच्छा लगे उस पर राग और अच्छा नहीं लगे उस पर द्वेष! इसलिए राग, द्वेष और 'मैं चंदूलाल हूँ'वह अज्ञान, इतने से ही यह पूरी दुनिया चल रही है। जिसे जैन लोग रागद्वेष और अज्ञान कहते हैं और वेदांती मल, विक्षेप और अज्ञान कहते हैं। डिस्चार्ज स्वरूपों को, निर्दोष देखें बाहर का तो आप देखोगे वह अलग बात है. परन्त आपके ही अंदर का आप सबकुछ देखने लगोगे, उस समय आप केवलज्ञान सत्ता में होंगे। परन्तु अंश केवलज्ञान होगा, सर्वांश नहीं। अंदर खराब विचार आएँ उन्हें देखना है, अच्छे विचार आएँ उन्हें देखना है। अच्छे के ऊपर राग नहीं और खराब के ऊपर द्वेष नहीं। अच्छा-बुरा देखने की हमें ज़रूरत नहीं है। क्योंकि मूल सत्ता ही हमारे काबू में नहीं है। इसलिए ज्ञानी क्या देखते हैं? पूरे जगत् को निर्दोष देखते हैं। क्योंकि यह सबकुछ डिस्चार्ज में है, उसमें उन बेचारों का क्या दोष? आपको कोई गालियाँ दे वह डिस्चार्ज, बॉस आपको परेशान करे तो भी डिस्चार्ज ही है। बॉस तो निमित्त है। दुनिया में किसीका दोष नहीं है। जो दोष दिखते हैं वह खुद की ही भूल है और वे ही ब्लंडर्स हैं और उनसे ही यह जगत् खड़ा रहा है। दोष देखने से, उल्टा देखने से ही बैर बंधता है। ड्रामेटिक में कर्त्तापद नहीं यथार्थ दर्शन नहीं हुआ और जैसे इस दुनिया के लोग देखते हैं, लौकिक दर्शन से कि, 'ये मेरे साले लगते हैं, ये मेरे मामा लगते हैं, ये मेरे चाचा लगते हैं। इस तरह 'मेरे' बोलने से ही राग होता है और 'यह' स्वरूपज्ञान मिलने के बाद 'मेरा' बोलना है, परन्तु वह 'ड्रामेटिक' होता है। उसमें ड्रामेटिक भाव होता है। बात छोटी और सीधी है, सिर्फ बात को समझना ही है! ये मन, वाणी और वर्तन जो डिस्चार्ज होते रहते हैं, उन्हें खाली देखते ही रहना है। डिस्चार्ज अपनी सत्ता में नहीं है। वहाँ पर आप यदि दखल करने जाओगे तो उससे कुछ भी फायदा नहीं होगा। आपको' तो 'चंदूभाई' क्या करते हैं, उसे ही देखते रहना है। भगवान महावीर सिर्फ यही करते थे। जो खुद का पुद्गल था, उसमें क्या चल रहा है उसे ही देखते थे। एक पुद्गल को ही देखते थे, दूसरा कुछ भी नहीं देखते थे। कैसे सयाने थे वे! जिनकी बात करते ही आनंद होता है!!! प्रश्नकर्ता : परन्तु संसार में ड्रामेटिक में भी खुद को करना तो पड़ेगा न? दादाश्री : ड्रामेटिक में तो करना नहीं पड़ता, सबकुछ होता ही रहता है। और कुछ भी करने जैसा है भी नहीं, अपने आप होता ही रहता है! नींद के समय पर नींद आ जाती है, जागने के समय पर जाग जाता है। सब होता ही रहता है। इसमें 'करना पडेगा या करने जैसा है' ऐसा भी नहीं बोल सकते और 'नहीं करना है या करने जैसा नहीं है' ऐसा भी नहीं
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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