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आप्तवाणी-४
(२८)
मुक्त हास्य जितनी सरलता उतना मुक्त हास्य दादाश्री : आपकी उम्र कितनी हुई? प्रश्नकर्ता : सत्तर।
दादाश्री : देखो न, इस उम्र में मेरे सामने देखकर हँस रहे हैं कि जैसे बालक हँस रहा हो। यह सरलता कहलाती है। क्या सबके पास से हास्य छीन लिया है? हँसा क्यों नहीं जाता? तब कहे, असरलता है। इसलिए हम उसे क्या कहते हैं, कि 'भाई, यहाँ सत्संग में रोज़ बैठे रहना', ऐसा करते-करते असरलता चली जाएगी, ऐसा करते-करते हास्य खुल जाएगा। इस आरती में हास्य खुलता है इसलिए मैं रास्ता करवाता हैं। हास्य तो नाभि में से फूटना चाहिए। यह तो यहाँ पर गले में से ही हँसते हैं, उसका क्या कारण है? अंदर मल भरा हुआ है इसलिए। आरती में सारे मल निकल जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : मुक्त हास्य किसे कहेंगे? दादाश्री : आपने मुक्त हास्य देखा है? प्रश्नकर्ता : आपका हास्य देखा है न? दादाश्री : यह आपको मुक्त लगता है? प्रश्नकर्ता : हाँ, बिल्कुल वीतराग हास्य लगता है। दादाश्री : यही मुक्त हास्य कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : हमारा हास्य मुक्तहास्य हो वैसे संयोग हैं, फिर वह किसलिए रुका हुआ है?
दादाश्री : आपके भीतर सारे भूत भरे हुए हैं, इसलिए वह रुका हुआ है। मुक्त पुरुष के सिवाय कोई वह नहीं निकलवा सकता। मुक्त पुरुष अपने मुक्त हास्य से आपको मुक्त हास्य में ले आते हैं। भीतर तरह-तरह के आग्रह रहे हुए होते हैं, इसलिए रोने के टाइम पर रोता नहीं और हँसने के टाइम पर हँसता नहीं है।
हास्य किसलिए आता है? ये बूढे चाचा अधिक क्यों हँसते हैं? निर्दोषता है इसलिए, सरल हैं इसलिए। सरल अर्थात् जैसे मोड़ो वैसे मुड़ जाएँ, सोने की तरह। उन्हें एक ही घंटे में जैसा आकार देना हो वैसा हो सकता है।
प्रश्नकर्ता : यानी निर्दोषता बढ़े तब हास्य बढ़ता है?
दादाश्री : हाँ, वह निर्दोषता का ही गुण है। आज के एटिकेटवाले (शिष्टाचारवाले) लोग जो टेबल पर हँसकर खाना खाते हैं, वह सब पोलिश्ड कहलाता है। वह फिर नई ही प्रकार का, तृतियम कहलाता है। ऐसा बनावटी हँसे, उसके बदले तो मुँह लटकाकर बैठना अच्छा। बनावटी बोले उसके बदले तो कम बोले तो अच्छा।
ये चाचा जब से आए हैं, तब से ही उनके भीतर नई ही प्रकार का अनोखा आनंद हो रहा है। वह मैं अकेला ही जानता हूँ और वे जानते हैं। क्योंकि सरल हैं, इसलिए हमारे दर्शन से ही उन्हें आनंद हो गया।
मुक्त हास्य, मुक्त पुरुष का 'ज्ञानी पुरुष' निरंतर मुक्त अवस्था में होते हैं, इसलिए सामनेवाले का भी अंतर खुल जाता है! हमारा मन मुक्त रहता है, किसी अवस्था में एक क्षण भी वह बंधता नहीं। 'ज्ञानी पुरुष' के दर्शन से ही सब उल्लास में आ जाते हैं। और उससे तो कितने ही कर्म नष्ट हो जाते हैं।
संपूर्ण वीतराग भगवान के अलावा और किसीका भी कर्म रहित