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(२६) स्मृति राग-द्वेषाधीन
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प्रश्नकर्ता हमें ये 'दादा' याद आते हैं, वह?
दादाश्री : वह प्रशस्त राग है। प्रशस्त राग वीतराग बनानेवाला है। उसीमें राग करने जैसा है! सब जगह से राग उठा-उठाकर इसमें ही राग करना है । आत्महेतु के लिए राग और देहाध्यास के लिए राग इन दोनों में बहुत फर्क है। आत्महेतु के प्रति ममता और आत्मा की ममता है। अं में वह मुक्ति दिलवाती है।
कुछ जड़ जैसे होते हैं, उन्हें भी स्मृति नहीं होती। समकित रहित विस्मृति जड़ता कहलाती है। भोजन अधिक हो, सोता रहे, प्रमादी रहे, उससे दिमाग़ डल रहता है। वह अधोगति में ले जाता है।
याद? कितना बड़ा परिग्रह !
परिग्रह किसे कहते हैं? जो याद आता रहे उसे अंगूठी ऊँगली में है या नहीं, गिर गई है या नहीं, वह भी याद नहीं आए तो उसका नाम अपरिग्रही । त्याग करने से अपरिग्रही नहीं बनते। त्याग करने जाएँ तो अधिक याद आता रहता है।
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(२७) निखालिस
निखालिसता निर्भय बनाए
तू पुस्तक नहीं पढ़ेगा और कुछ नहीं समझेगा तो भी मुझे आपत्ति नहीं है, परन्तु तू निखालिस बन, सच्चा निखालिस बन। फिर निखालिस को शोभा दे, वैसा सारा ज्ञान अपने आप ही उद्भव हो जाएगा।
प्रश्नकर्ता: व्यवहार में निखालिस हों तो बहुत तकलीफ होती है। दादाश्री : निखालिस कोई हो ही नहीं सकता न! आत्मज्ञान होने के बाद ही निखालिस बनते हैं।
प्रश्नकर्ता: निखालिस हों तो व्यवहार में बुद्ध माने जाते हैं।
दादाश्री : बुद्ध निखालिस होते ही नहीं। लोग बुद्ध को ही निखालिस कहते हैं। निखालिस तो अलग ही होता है। हर एक विषय में वह निखालिस होता है, एक-दो में नहीं।
प्रश्नकर्ता: निखालिस के बारे में ज़रा स्पष्ट समझाइए ।
दादाश्री : निखालिस यानी एकदम प्योर मनुष्य होता है। वह मनुष्य, मनुष्य नहीं होता, सुपरह्युमन हो तभी निखालिस हो सकता है। निखालिस तो एकदम प्योर, ट्रान्सपेरेन्ट जैसा होता है। उसे एक भी विचार इम्प्योर नहीं आता। वैसा तो होता ही नहीं न कहीं भी स्वरूपज्ञान मिलने के बाद धीरे-धीरे वैसा बनता जाता है।
प्रश्नकर्ता: व्यवहार में निखालिस मनुष्य का लोग गलत फायदा उठाते हैं न?