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तिरस्कार माइल्ड (हल्का) फल देता है, जब कि तरछोड़ भयंकर अंतराय डाल देता है। किसीको तरछोड़ नहीं लगे वैसी जागृति चाहिए। जिसे हमसे तरछोड़ लगे, वह हमारे लिए हमेशा के लिए किवाड बंद कर देता है। वाणी से लगे हुए तरछोड़ गहरे, भरे नहीं जा सकें ऐसे घाव डाल देते हैं ! एक भी जीव को तरछोड़ लगी, तो मोक्ष रुक गया समझो। वैसा जोखिम तरछोड़ में समाया हुआ है!
[९] व्यक्तित्व सौरभ 'ज्ञानी पुरुष' का व्यक्तित्व निराला होता है, जिन्हें आत्मा के सिवाय किसीमें प्रीति नहीं है। मन-वचन-काया से बिल्कुल अलग रूप से आत्मा में ही बरतते हैं। व्यवसाय करने के बावजूद वीतरागता से बरते, वैसे अक्रमज्ञानी की सिद्धियाँ तो देखो ! जहाँ व्रत नहीं हुआ, नियम नहीं हुआ, सिर्फ चोविहार (सूर्यास्त से पहले भोजन कर लेना), उबले हुए पानी और 'श्रीमद् राजचंद्र के वचनामृतों' का, वैसे ही सर्वधर्म के शास्त्रों का पठनमनन था। बाक़ी कुदरती रूप से ही यह गज़ब का अक्रम विज्ञान प्रकट हुआ! १९५८ की शाम को सूरत स्टेशन की बेंच पर ज्ञान प्रकट होने से पहले, भयंकर भीड़ में भी अंतर में नीरव शांति हो गई, परन्तु वह भी अहंकार मिश्रित ही न! और जहाँ परम ज्योति स्वरूप प्रकाश प्रकट हुआ, परे ब्रह्मांड को ज्ञान में देखा, देह से, मन से, वाणी से खुद बिल्कुल अलग हो गए थे- वैसा अनुभव हुआ, ज्ञाता-दृष्टा और परमानंद में पनपते ही इस अवनी के इतिहास का भव्यातिभव्य दिन उगा! अहंकार खत्म हो गया! ममता खत्म हो गई!! उनके श्रीमुख से प्रवाहित होनी शुरू हुई वीतराग वाणी ही उनकी आध्यात्मिक पूर्णता का प्रमाण था और इस कलिकाल का ग्यारहवाँ आश्चर्य, अक्रमविज्ञान-असंयति पूजा जगत् से छुपा नहीं रह सका। एक के बाद एक, ऐसे करते-करते बीस वर्षों में बीस हज़ार पुण्यात्माओं ने उसे, अक्रममार्ग से आत्म विज्ञान को प्राप्त किया और वही सबसे बड़ा आश्चर्य है!
'ज्ञानी' का नित्यक्रम क्या? 'ज्ञानी' निरंतर आत्मचर्या में ही होते हैं। मोक्ष में ही होते हैं। खुद की ही वाणी को 'टेपरिकॉर्ड' कहकर मालिकीभाव
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के तमाम करार फाड़ देते हैं! ऐसे समर्थ निमित्त हों, वे तो उपादान की कमी भी चला लेते हैं!
प्रेम के बिना भक्ति पैदा नहीं होती। पूरा दिन भगवान भुलाए ही नहीं जाएँ, वह प्रेमलक्षणा भक्ति है।
ज्ञानी ने स्वयं निर्दोष होकर, निर्दोष दृष्टि करके, पूरे जगत् को निर्दोष देखा। शुद्धात्मा दोष करता हो, तो वह दोषित माना जाए। वह तो संपूर्ण अकर्ता है, फिर दोष देखने का रहा ही कहाँ? 'डिस्चार्ज' में किसीका दोष कहाँ से होगा? एक भी व्यक्ति यदि दोषित दिखे, वहाँ शुद्धि नहीं है, वहाँ इन्द्रिय ज्ञान है, आत्मज्ञान नहीं है! विचारों से मारनेवाला कुदरत का गुनहगार
और वास्तव में मारनेवाला जगत् का गुनहगार ठहरता है। दोनों को न्याय मिलता ही है। विचारों में मारनेवाला अगले जन्म का गुनहगार बनता है, जब कि वास्तव में मारनेवाले को इस जन्म में ही दंड मिलने से निकाल हो जाता है!
'मैंने खाया' बोलने में हर्ज नहीं है, परन्तु भीतर जानना चाहिए कि 'कौन खा रहा है?'
'मिला वह आत्मज्ञान नहीं है, भीतर प्रकट हुआ वह आत्मज्ञान है।' - ऐसा दादाश्री कहते हैं। ज्ञानी की आज्ञा का पालन किया जाए, वही ज्ञानी की कृपा को खींच लाती है।
जहाँ शब्द सीमित हो जाते हैं, समझ कम पड़ती है, जहाँ कोई उपमा नहीं, जो स्वयं उपेय हैं, ऐसे ज्ञानी का क्या वर्णन हो? जो निरंतर आत्मा में रहते हैं, मन में नहीं, वाणी में नहीं, देह में नहीं, जहाँ किंचित् मात्र अहंकार को स्थान नहीं है, जहाँ क्रोध-मान-माया-लोभ का निर्वाण हो गया है, नम्रता तो उन ज्ञानी का सामान्य गुण है। ज्ञानी तो निअहंकारी होते हैं। गाली देनेवाले को भी आशीर्वाद देते हैं! ज्ञानी नि:स्पह नहीं होते. वैसे ही सस्पृह भी नहीं होते, वे तो सस्पृह-निस्पृह होते हैं। सामनेवाले के भौतिक सुखों के लिए नि:स्पृह और आत्मा के लिए सस्पृह !
'ज्ञानी' की वाणी वीतरागता सहित, राग-द्वेष रहित होती है, जिस
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