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________________ 'ज्ञानी' का यह कथन विषयों को नष्ट करने के लिए होनेवाले अथक परिश्रम को गजस्नानवत् कहकर हटा देता है और उसके 'रूटकॉज' के समान, विषयों में सुख के अभिप्राय की गलत मान्यताओं को नष्ट करने की दिशा में जागृत करनेवाला है। जब से नक्की किया कि अभिप्राय तोड़ने हैं, तब से वे टूटने लगते हैं! अवगाढ़ अभिप्राय को हररोज़ दो-दो घंटे खोदते रहें, प्रतिक्रमण द्वारा, तो वे खत्म होंगे! जिसे आत्मा प्राप्त हुआ है, जो 'पुरुष' हो गया है, वह चाहे किसी भी प्रकार के पुरुषार्थ और पराक्रम तक पहुँच सकता है! जैसा अभिप्राय वैसा पुद्गल परिणमित होकर मिलनेवाला है। अभिप्राय का भी अभिप्राय सूक्ष्मता से रह गया हो, उसे उखाड़ना ज़रूरी है। अभिप्राय कौन करवाता है? लोकसंज्ञा ही, क्योंकि लोकसंज्ञा से खुद मान्यता बनाता है, बुद्धि उसके अनुसार निश्चित करके व्यवहार करवाती है। ज्ञानी की संज्ञा से चलें, वहाँ लोकसंज्ञा का लोप होता है! सामनेवाले के लिए होनेवाला सहज भी उल्टा विचार सामनेवाले को स्पर्श करके, फिर उग निकलें, वहाँ पर शूट ऑन साइट प्रतिक्रमण, स्पंदनों को सामनेवाले तक पहुँचने से रोकता है। या फिर पहुँचे हुए स्पंदनों को मिटा देता है। और अभिप्राय मिटते ही उस व्यक्ति के साथ के वाणीवर्तन में साहजिकता आ जाती है, जो सामनेवाले को स्पर्श किए बिना नहीं रहती। इससे विरुद्ध, दोषवाले अभिप्राय सहित की दृष्टि सामनेवाले के मन पर छाया डालती है। जिससे उसकी हाज़िरी में भी नापसंदगी बरतती है। अभिप्राय बदलने के लिए प्रतिस्पर्धी अभिप्राय रखें। चोर है उस अभिप्राय को छेदने के लिए चोर को साहूकार है, साहूकार है, कहना पड़ता है और अंत में, वास्तव में तो वह शुद्धात्मा है, ऐसी दृष्टि रखनी पड़ेगी! ___अभिप्राय तंतीली (विवादवाली, तीखी, चुभनेवाली) वाणी का कारण है, जब कि अभिप्राय का कारण शंका है। 'अभिप्राय बुद्धि के आशय के अधीन है।' - दादाश्री। बुद्धि ने जिसमें सुख माना उस आधार पर अभिप्राय पड़ता है। फ्रेंचकट में सुख माना, वहाँ फ्रेंचकट का अभिप्राय पड़ जाता है। ___'स्वरूपज्ञान' के बाद में अनंत समाधि को कौन रोकता है? अभिप्राय ! दो-पाँच बड़े-बड़े अभिप्राय खत्म हुए कि मुक्तदशा का अनुभव मिलता है!! क्रिया से बीज नहीं डलता पर वह डलता है हेतु से, अभिप्राय से! स्वागत योग्य कोई अभिप्राय हो तो एक ब्रह्मचर्य का और दूसरा, यह देह दग़ा है, उसका! अभिप्राय अहंकार के परमाणुओं का बना हुआ है। अभिप्राय, व्यक्तित्व दिखाता है, दृष्टि ही बदलवा देता है। मृत अभिप्राय का हर्ज नहीं है, आग्रहवाले अभिप्राय ज्ञान को आवृत करते हैं। अचेतन के अभिप्राय छोड़ने में, बस हम छोड़े उतनी ही देर। जब कि मिश्रचेतन के साथ बाँधे हुए अभिप्राय हमारे छोड़ देने के बाद भी हमें नहीं छोड़ते! जिनके मुँह बिचकते हैं, वैसे मिश्रचेतनवाले के बारे में अभिप्राय बाँधकर बाद में कितना रोना पड़ता है! अभिप्राय से अंतराय को आमंत्रण दिया जाता है। अभिप्रायों के अंतरायों का जोखिम भारी है, जहाँ से छूटना है, वहीं पर अधिक बाँधता है! प्रतिष्ठित आत्मा का अभिप्राय उत्पन्न हुआ और तब उसके अनुसार यह पुतला चलेगा, उसमें 'शुद्धात्मा' मात्र 'उदासीन भाव' से उपस्थित रहता [६] कुशलता का अंधापन संसार का कुछ भी नहीं आता हो, वे 'ज्ञानी'। अन्य को प्रबुद्ध लगनेवाले 'ज्ञानी' वास्तव में तो अबुध ही होते हैं। ज्ञानी कहते हैं, हमें तो इस सत्तर वर्ष की उम्र में दाढ़ी भी बनानी नहीं आती। खुद किसी भी चीज़ में एक्सपर्ट हैं, ऐसा माननेवाले खुद अपने आप को और सभी को
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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