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________________ (२०) गुरु और ज्ञानी १५७ १५८ आप्तवाणी-४ के बजाय सूरत की तरफ मोड़ते हैं, उससे सभी गाड़ियाँ आमने-सामने टकरा गई! अरे, 'पोइन्टमेन' की तनख्वाह खाते हो, तो इतना तो काम करो! ये तो वाद-विवाद में हराकर गुरु बन बैठे! वह गुणवाचक नाम है या नामवाचक नाम है? न्याय देना पड़ेगा न इसका? यदि गुणवाचक नाम हो तो दूसरे प्रश्न खड़े होंगे। और नामवाचक हो तो हर्ज नहीं है! भगवान ने तो क्या कहा हुआ है कि, 'हम पूरे जगत् के शिष्य हैं।' पूरे जगत् का कोई गुरु नहीं बन सकता। यह तो सब व्यापार लगाकर बैठे हैं, कहीं भी धर्म की निष्ठा ही नहीं रही। यह तो खान-पान और मान की ही निष्ठा है। यह हमें कठोर बोलना पड़ता है, वह क्या हमें अच्छा लगता होगा? फिर भी आप सावधान रहो उसके लिए कहते हैं। सत्य कौन बोलता है कि जिसे कुछ भी नहीं चाहिए। इनमें कुछ सच्चे पुरुष होंगे जरूर, पर वे बहुत कम, सैंकड़ों में दो-पाँच प्रतिशत ही मिलेंगे। सीधा चलानेवाले कौन है कि जो खुद सौ प्रतिशत सीधा चलता हो, वही दूसरों को सीधा चला सकेगा। खुद में उल्टा हो तो दूसरों को किस तरह उपदेश दे सकेगा? मैं जिसमें सौ प्रतिशत करेक्ट होऊँ उसका आपको उपदेश दूं, तो ही वचनबल चलेगा। _ 'रिलेटिव' धर्म, तो सफर के साथी जैसे ये 'रिलेटिव' धर्म हैं वे सफर के साथी जैसे हैं। सफर में अच्छा व्यक्ति, जरा मजबूत व्यक्ति साथ में हों तो रास्ते में अच्छा रहता है और लुटेरे जैसा कोई मिल जाए तो लूट लेगा। सफर के साथी अर्थात् जिसका बिगिनिंग होता है और जिसका एन्ड होता है। जिसका बिगिनिंग नहीं हो और अंत भी नहीं आए, वैसा साथ किस काम का? साथ अर्थात् कुदरती रूप से एक विचारवाले इकट्ठे हो जाएँ, वह। अपना तो यह साइन्स है। 'फ्रॉम जीरो टू हंड्रेड' तक का है। यह तो ठेठ तक का है और आगेपीछे के 'रिलेशन सहित' है। धर्म तो आरपार ले जाए, वह होता है। वैसा तो कभी भी उत्पन्न होता ही नहीं न? हो तो काम ही निकल जाए। हालाँकि कुछ नहीं मिला हो, उससे तो इस 'रिलेटिव' धर्म का साथ अच्छा। व्यापार, धर्म में तो शोभा नहीं ही देता पूरे जगत् का जो शिष्य बने वही गुरु बनने के लायक है। एक क्षणभर भी 'यह मेरा शिष्य है' ऐसा भान नहीं रहता हो तो शिष्य बनाओ। हमने पाँच हजार लोगों को ज्ञान दिया है, परन्तु हमें एक क्षणभर के लिए भी 'मेरा शिष्य है' ऐसा नहीं लगता। ____ भगवान ने कहा है कि सबकुछ टेढ़ा करोगे तो चलेगा, परन्तु सिर्फ गुरु सीधे बनाना। अनंत जन्मों से टेढ़े गुरु मिले हैं, इसलिए ही भटका है। हिन्दुस्तान देश में धर्म के साथ व्यापार ले बैठे हैं, वह ठीक नहीं है। व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं करते। भले ही ज्ञानी नहीं हों, परन्तु उन्हें देखकर तेरा दिल ठरता हो तो वहाँ बैठना, परन्तु धर्म के व्यापारी के पास मत पड़े रहना। और यदि शुद्ध व्यक्ति नहीं मिलते हों, तो भीम ने किया था वैसा करने जैसा है। भीम को शुद्ध व्यक्ति नहीं मिले थे, तो उन्होंने एक लोटा लिया और रंग दिया और उस पर लिखा 'नमो नेमिनाथाय' और उसके दर्शन करते थे ! हालाँकि उसमें किसीका दोष नहीं है। यह काल ही विचित्र आया है, तो इसमें ऐसा ही होता है। वे भी बेचारे क्या करें? वे भी फँस गए हैं उधर! प्रश्नकर्ता : आसन पर साधू बैठे हों और जाकर उन्हें नमस्कार किया तो ऐसा कहा जाएगा कि उन्हें गुरु बना दिया? दादाश्री : नहीं, हमें उन्हें कहना चाहिए, उनके साथ सौदा कर लेना चाहिए। यह तो सारा व्यापार है, इसलिए 'कॉन्ट्रेक्ट' करना चाहिए कि आज से मेरे हृदय में आपका गुरु की तरह स्थापन कर रहा हूँ। स्थापन करने के बाद मंडान किया कहा जाता है फिर स्थापन करने के बाद खंडन करना तो बड़ा गुनाह है, नहीं तो स्थापन करना ही नहीं। भगवान की भाषा ऐसी है कि स्थापन करना नहीं और स्थापन करो तो खंडन करना नहीं। पूरी दुनिया में गुरु बनाना यदि किसीको आया हो तो वह इन खोजा लोगों को! आपके गुरु ने यदि विवाह कर लिया हो. अरे. विवाह नहीं किया हो परन्तु किसीको छेड़ भी दिया हो तो वहाँ आप सब उन्हें मारने
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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